Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 68
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५६ ) दज्झमाणेसु जंतुसु। अन्ने सत्ता पमोयंति, रागद्दोसवसं गया ॥४२॥ छाया-दवाग्निना यथारण्ये, दह्यमानेषु जन्तुषु । अन्ये सत्त्वाः प्रमोदयन्ते, रागद्वेषवशंगताः ॥४२॥ अन्वयार्थ-[यथा] जैसे [दवाग्निना] दावानल कर के [जन्तुषु] प्राणि [ दह्यमानेषु] जलते हुवे [अरण्येषु ] बन में [रागद्वेषवशंगताः] रागद्वेष के वशीभूत हुए [अन्ये] दूसरे [सत्त्वाः ] प्राणि [प्रमोदयन्ते ] आनन्दित होत है।॥ ४२ ॥ ___भावार्थ-हे नाथ ! जैसे किसी एक जंगल में दावानल कर के हिरन खरगोश आदि मूक प्राणी जल रहे थे, उस समय दावानल के निकटवर्ति दूसरे हिरन स्वरगोश आदि जानवर जिन के समीप अभी तक वहाँ अग्नि पहुची नहीं, वे सभी प्राणी उस घटना को देख कर बड़े खुशी मनाते हैं। पर वे मूद यों नहीं जानते हैं कि जो घटना वहाँ हो रही है वही घटना हमारे पर भी क्षण मात्र में घटने वाली है ॥ ४२ ॥ मूल-एवमेव वयं मूढा, कामभोगेम मुच्छिया। डज्झमाणं न बुज्झामो, रागद्दोसग्गिणा जगं ॥ ४३ ॥ For Private And Personal Use Only

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