Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 66
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५७ हे मनुष्यों के देव [ एक एव ] एक ही [ धर्मः ] धर्म [ त्राणम् ] शरण भूत ' होगा ' [ अन्यत् ] दूसरा [ इहेह ] यहाँ पर [ किञ्चित् ] कोई भी [न] नहीं [ विद्यते ] हैं ॥ ४० ॥ भावार्थ हे राजन् ! इन प्रधान काम भोगों को छोड़ कर किसी एक समय में आखिर मरना पड़ेगा अमर हो कर कोई नहीं आया है | देखिये कैसे २ चक्रवर्ति राजा, जो कि मरना जानते ही न थे वे भी दुनिया से चल बसे, सब उन के ऐश आराम की चीजें यहीं धरी रह गई हैं। पर भव में माता, पिता, भगिनी, औरत पुत्र, धन, राज, कोट, किला कोई भी चीज़ शरणभूत नहीं हो सकेंगे । केवल एक धर्म ही अवश्य आप की यातना में हाथ बटायेगा ॥ ४० ॥ राजा अपनी प्रियपत्नि के मार्मिक वचनों को सुनते ही चमक कर बोला, रानी ठेर कुछ ठेर, बोलने में इतनी जल्दी मत कर | क्या तेरा चित्त व्याकुल तो नहीं हो गया है। राज्य में धन श्राता है वह सब ऐसा ही है । ये तेरे सब रत्न जड़ित चन्द्रहार आदि आभूषण इसी धन के बने हुए हैं। जैसा तू मुझे उपदेश कर रही है तो क्या तू अमर हो कर आई है यह तो एक वह बात हुई जैसे किसी कवि ने कहा कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे " हे राणी पहिले तो राज्य छोड़ साध्वी बन जा फिर सुके उपदेश करना । इस प्रकार अपने प्राणेश्वर के वचन सुनते ही राजा से राणी यो बोली || " ......39 मूल - नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा, संतापछिन्ना चरिस्सामि मोणं । For Private And Personal Use Only

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