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अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा,
परिग्गहारम्भनियत्तदोसा ।। ४१ ॥ छाया-नाहं रमे पक्षिणि पंजरे इत्र,
छिन्नसन्ताना चरिष्यामि मौनम् । अकिंचना ऋजुकृता निरामिषा,
परिग्रहारम्भदोषनिवृता ।। ४१॥ अन्वयार्थ-[पंजरे ] पिंजरे में [ पक्षिणीव ] पक्षिणी के जैसे [अहम् ] मैं [न] नहीं [ रमे] आनन्द पाती हूँ
अत एव' [अकिंचना] द्रव्य रहित [ऋजुकृता] सरल [निरामिषा] विषय रहित [अारम्भपरिग्रहदोषनिवृत्ता] प्रारम्भ परिग्रह दोषों से विरक्त हो [ मौनम् ] साधुवृत्ति को [चरिष्यामि ] अङ्गीकार करूंगा ॥४१॥
भावार्थ-हे प्राणनाथ ! जैसे पक्षिणी पिंजरे में खान पान श्रादि सब सुविधाएं होते हुए भी दुःख अनुभव करती हैं। ऐसे ही इस राज्य और भव रूप पिंजरे में मैं भी श्रानन्द नहीं पा रही हूँ। यदि आप मुझे श्राशा देदे तो मैं स्नेह रूप सन्तति को छोड़ कर, विषय वासना से मुँह मोड़ दूं। सब ये हीरे पन्ने से मड़ित गहने शरीर से उतार कर सरल स्वभाविका बनें । और आरम्भ परिग्रह से उत्पन्न होने वाले दोषों को परित्याग कर धार्यिका अर्थात् साध्वी बनूंगी ॥ ४ ॥
मूल-दवग्गिणा जहा रगणे,
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