Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 69
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६० ) छाया - एवमंत्र वयं मूढा, कामभोगेषु मूर्च्छिताः । दह्यमानन्न बुध्यामहे, रागद्वेषाग्निना जगत् ||४३|| अन्वयार्थ - ( एवमेव ) इसी तरह से ( वयम् ) अपन भी ( मूढाः) मूढ हो रहे हैं ' जो कि' (कामभोगेषु) कामभोगों में ( मूर्च्छिता) मूर्च्छित होते हुए (रागद्वेषाग्निना राग, द्वेष रूप करके (दह्यमानं) जलते हुए ( जगत् । संसार को न नहीं (बुध्यामहे ) जानते हैं || ४३ || भावार्थ- हे प्राणेश्वर ! जैसे वे प्राणी ओरों को जलते हुए देख कर आनन्दित होते हैं । इसी प्रकार अपन भी कैसे मूर्ख हैं जो कि काम भोगों में मूच्छित हो कर राग द्वेष रूप अग्नि कर के सारे जगत को जलते हुए देख कर अपन ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं । जैसे वे मर रहे हैं और उनके लिये जो घटना हो रही है वह एक रोज अपने पर भी होगी ॥ ४३ ॥ मूल - भोगे भोचा वमित्ता य, लहुभूयविहारिणो । आमोयमाणा गच्छति, दिया कामकमा इव ॥ ४४ ॥ छाया - भोगान् भुक्त्वा वान्त्वा च, लघुभूतविहारिणः । आमोदमाना गच्छन्ति, द्विजाः कामक्रमा इव ॥ ४४ ॥ For Private And Personal Use Only

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