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तुम्हारे [भवेत् ] हो जावे 'तदपि' [तव] तुम्हारे [ सर्वमपि] सर्व भी [अपर्याप्तम् ] अपूर्ण है [ तत् वह ' सब जगत् व धन' [तव ] तुम्हारे [त्राणाय] रक्षा के लिये [नैव] नहीं है ॥ ३६॥
भावार्थ-हे प्राणेश्वर ! यदि आप को सारा जगत् का राज्य मिल जावे और पृथ्वी भर का सब धन हस्तगत हो जावे । तदपि श्राप की इच्छा कभी भी परिपूर्ण नहीं होगी । ज्यो ज्यो धन व राज्य बड़ता जायगा त्यो त्यो इच्छा बड़ती ही जायगी फिर वही राज्य और धन अन्त समय में कुछ भी काम आने वाले नहीं हैं। और न वे यमराज की दी हुई यातना में रक्षा कर सकेंगे ॥३६॥ मूल-मरिहिसि रायं जया तया वा,
मणोरमे कामगुणे पहायं । एको हु धम्मो नरदेव ताणं,
न विज्जइ अज्जमिहेह किंचि ॥४०॥ छाया-मरिष्यसि राजन् यदा तदा वा,
मनोरमान् कामगुणान् विहाय । एक एव धर्मो नरदेव त्राणं,
न विद्यतेऽन्यदिहेह किञ्चित् ॥४०॥ अन्वयार्थ-[राजन् ] हे नरेश [यदा तदा वा] जब तब [मनोरमान् ] मनोहर [कामगुणान् ] कामभोगों को [विहाय ] छोड़ कर [ मरिष्यसि] मरोगे [नरदेव]
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