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( ५५ )
छाया - वान्ताशी पुरुषाराजन् न सोभवति प्रशंसितः । ब्राह्मणेन परित्यकं धनमादातुमिच्छसि ||३८||
अन्वयार्थ - [ राजन् ] हे राजन् [ वान्ताशी ] वमन किये हुवे पदार्थ को खाने वाला [ पुरुषः ] मनुष्य [ सः ] वह [प्रशंसितः ] प्रशंसा पात्र [न] नहीं [ भवति ] होता हे [ ब्राह्मणेन ] ब्राह्मणने [ परित्यक्तं ] त्यागा हुआ [ धनम् ] धन [ श्रादातुम् ] लेने को [ इच्छसि ] इच्छा करते हो ।। ३८ !!
भावार्थ- हे प्राणनाथ नृपते ! जैसे किसी पुरुष को उष्टी हुई उसी ही उष्टी को कुत्ते काग के सिवाय वही पुरुष पुनः भक्षण करना चाहे तो वह क्या प्रशंसनीय हो सकता है ! कभी भी नहीं । ऐसे ही हे नाथ आप जो धन ब्राह्मण को संकल्प कर चुके । उसी को श्राप लेना स्वीकार कर रहे हैं । यह कहां तक योग्य और उचित है । आप स्वयं हृदय पर हाथ धर कर इस बात को कुछ देर के लिये सोचें ॥ ३८ ॥
मूल - सव्यं जगं जइ तुहं, सव्वं वापि धणं भवे । सव्वंपि ते अपजत्तं, नेव ताणाय तं तवं ॥ ३६ ॥
छाया - सर्वजगद्यदि तत्र, सर्वं वापि धनं भवेत् । सर्वमपि तवा पर्याप्तत्र त्राणाय तत्तव || ३६ ॥ अन्वयार्थ – [ यदि सर्वम् ] यदि सर्व [ जगत् ] लोक [ चापि ] और भी [ सर्वम् ] सर्व [ धनम् ] धन [ तव ]
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