Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 61
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५३ ) अन्वयार्य-(नभसि) आकाश में (क्रौचाः) क्रौंच पक्षी (इव ) जैसे (समतिक्रामन्तः) एक देश को उलंघन करजाते है (च) और ( हंसाः ) हंस पढ़ी (तता. नि ) विस्तीर्ण (जालानि) जालको ( दलयित्वा ) काट कर ' स्वेच्छा से विचरते है ऐसे ही' (पुत्रौ) दोनों पुत्र ( च ) और ( मम ) मेरे ( पतिः ) प्राणनाथ (तान् ) उन भोगों को त्यागकर संयम लेने को ' (परियन्ति) जा रहे है ( एका) एकेली (कथं) कैसे (न) नहीं ( अनुगमिष्यामि ) साथ जाऊँगा। ३६ ॥ भावार्थ-हे प्राणपते ! आपका सद्बोध मेरे कलेजे को पार कर गया है । अहा हा खूबही अच्छा दृष्टान्त दिया । जैसे क्रौंच पक्षी एक देश को उलंघन कर दूसरे देश को चला जाता है । हंस लम्बी चौडी जालको काटकर स्वेच्छा से विचरता है । ऐसे ही दोनो पुत्र और आप मोह माया रूप जालको काटकर संयम मार्गको प्राप्त करने के लिये जा रहे हैं तब मै एकेली क्या संयम मार्गको प्राप्त करने के लिये साथ नहीं श्राऊँगा ॥ ३६॥ मूल-पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सोच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं, रायं अभिक्खं समुवाय देवी ॥ ३७॥ For Private And Personal Use Only

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