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( ५२ ) अन्वयार्थ-(यथा ) जैसे (रोहिताः ) रोहित जा. ति का ( मत्स्या) मच्छ ( अबलम् ) जीर्ण (जालम् ) जालको (छित्वा ) नाश करके ' स्वेच्छा से विचरता है' (इव ) ऐसे ही (धौरेयशीलाः ) प्रबल है धर्म क्रिया में स्वभाव जिनका (तपसा ) तपस्या ( उदाराः ) प्रधान (धीराः) बुद्धिमान (कामगुणान् ) कामभोगों को (प्रहाय) त्याग कर ( यस्मात् ) 'मोक्ष' जाने के लिये ( भिक्षाचर्या ) भिक्षा वृत्तिको (चरन्ति ) प्राप्त करते हैं ॥ ३५ ।।
भावार्थ हे प्रियपत्नि ! जैसे रोहित जातिका मच्छ जीर्ण जाल को अपनी तीक्ष्ण पूछ ले काटकर जल में स्वेच्छा से विचरता है । ऐसे ही प्रधान तप के धारी क्रिया में उत्कृष्ट भाव है जिनके ऐसे वे भोग रूप जाल को नष्ट कर संयम मार्ग को जा रहे हैं। ३५।।.. मूल-नहेव कुंचा समइकमंता,
तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा। पति पुत्ता य पई य मझ,
ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्का ।। ३६ ॥ छाया-नमसीव क्रौंचाः समतिकामन्त,
स्ततानि जालानि दलयित्वा हंसाः । परियन्ति पुत्रौ च पतिश्च मम, तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका ॥ ३६ ।।
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