Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 59
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छोड़कर (मुक्तः ) मुक्त होने पर ( पर्येति) भागजाता हैं ( एवम् ) इस प्रकार (एतौ ) ये (ते ) तुम्हारे ( जातो) पुत्र (भोगान् ) भोगों को (प्रजहीतः) त्यागन कर दिये हैं (एकः ) एकेला (अहं ) मैं ( कथं) कैसे (न) नहीं ( अनुगमिष्यामि ) साथ जाऊँगा ।। ३४ ॥ __ भावार्थ- हे भोगेच्छुका प्रिय पत्नि ! जैसे सर्प, तनसे उ. त्पत्र होनेवाली कंचुकाको छोड़कर भाग जाता है । पुनः उसी कंचुकाको लेना तो दूर रहा पर उसकी तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखता है। ऐसे ही तेरे दोनों पुत्र शरीर से उत्पन्न होने वाले भोगोपभोगों के सुखों का परित्याग कर साधु बनने को जा रहे है । तो भी मैं एकेला उनके साथ साधुवृत्ति ग्रहण करने को नहीं जाऊँगा क्या ? ॥ ३४॥ मूल-छिदितु जालं अबलं व रोहिया, मच्छा जहा कामगुणे पहाय । धोरेयसीला तवसा उदारा, धीराहु भिक्खायरियं चरन्ति ॥ ३५ ॥ छाया-छित्वा जालमबलमिव रोहिता, मत्स्या यथा कामगुणान् प्रहाय । धौरेयशीला तपमा उदारा, धीरा यस्माद भिक्षाचयाँ चरन्ति ॥३५ ।। For Private And Personal Use Only

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