________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ४६ ) जुगणो व हंसो पडिसोयगामी । भुंजाहि भोगाई मए समाणं;
दुक्खं खु भिक्खाययिरा विहारो ॥३३॥ छाया-मा खलु त्वं सौदर्याणामस्मार्क,
जीर्ण इव हंसः प्रतिस्त्रोतोगामी । भुंक्च भोगान् मया समं,
दुःखं खलु भिक्षाचर्या विहारो॥ ३३ ॥ अन्वयार्थ-(प्रतिस्रोतोगामी) प्रतिकूल स्रोतको जानेवाला (जीर्णः ) पुराने ( हंस ) हंस ( एव ) जैसे (त्वम् ) तुम ( सौदर्याणाम् ) एक उदरसे उत्पन्न होने वाले भ्राताओं का (मा) कही ( खलु ) निश्चय ( अस्मार्षी ) स्मरण करोगे ' इस लिये ( मया) मेरे (समं) साथ ( भोगान् ) भोगों को ( भुंक्ष्व ) भागो ( भिक्षाचर्याः ) भिक्षा वृत्तिका (विहारः ) गमन ( दुःखम् ) दुःखमयी ( खलु ) निश्चय है ॥ ३३ ॥
भावार्थ-हे प्राणेश्वर ! दीक्षा लेने के बाद कुटुम्बियों के भोगों की तरफ तुमारा कही ध्यान तो आकर्षित न होजाय ! जैसे नदी के किनारे पर हँसों के टोलों में से एक वृद्ध हँस अपनी सहचारिणी व कुटुम्बियों की बात पर तनिक भी ध्यान
For Private And Personal Use Only