Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 56
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाभमलाभञ्च सुखञ्च दुःखं, संत्यक्ष्यमाणश्वरिष्यामि मौनम् ॥ ३२ ॥ अन्वयार्थ (भोगिनि) ह भोगेन्छुका (रसाः) भोगों को (भुक्ताः) भोग लिये 'इन को नहीं छोड़ेंगे तो' (वयः) अवस्था (नः) मुझ को (जहाति) त्याग जायगा (जीवि. तार्थ ) - स्वर्ग में विशेष' जिनके लिये ( भोगान् ) भोगों को (न) नहीं (प्रजहाभि) त्यागता हूं ( लाभं) प्राप्ति (च) और (अलाभम्) अमाप्ति (च) और (सुखम्) सुख (दुःखम् ) दुखको ( संत्यक्ष्यमाणः) समभाव से देखता हुआ (मौनम् ) साधुवृत्तिको (चरिष्याभि प्राप्त करूंगा ॥३२॥ ___ भावार्थ-हे भांगेच्छुका प्राणप्रिये ! संसार के पौगलिक सुखों का अनुभव अच्छी तरह से मैं ने कर लिया है । यदि मैं इन भोगों को नहीं छोडूंगा नो योवन अवस्था मुझ कोपरित्याग कर जायगा। इस लिये पहले ही से भोगों का परित्याग करना श्रेष्ठ है । दांत गिरने पर इंतु चूसने का त्याग करना अज्ञानता है । और ऐसा भी मत समझना कि उपलब्ध भोगोपभोग से अधिक भोगों की प्राप्ति के लिये संसार छोड़ रहा हूं मैं तो केवल अात्मिक सुखों के लिये ही संसार परित्याग कर रहा हूँ। मुझे स्वर्गादि की प्राप्ति अप्राप्ति पौगलिक सुख दुःख से कोई प्रयोजन नहीं है । सम भाव से देख. ता हुआ साधुवृत्ति प्राप्त करूंगा॥ ३२ ॥ मूल-मा हू तुमं सोयरियाण संभरे, For Private And Personal Use Only

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