Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया-पुरोहितं तं ससुतं सदारं, श्रुत्वाऽभिनिष्क्रम्य प्रहाय भोगान् । कुटुंवसारं विपुलोत्तमं तं, राजानमभीक्ष्णं समुवाच देवी ॥ ३७॥ अन्वयार्थ-(ससुतम् ) पुत्र सहित (सदारम् ) स्त्री सहित (तम्) वह (पुरोहितम् ) पुरोहित (भोगान्) भोगों को (प्रहाय) परित्याग कर ( अभिनिष्क्रम्य ) संसार से निकलते हैं 'ऐसा' (श्रुत्वा) सुनकर (विकुलोत्तमम्) प्रचूर प्रधान (कुटुम्बसारं ) धन धान्यादि ग्रहण करने वाले (तम्) उस । राजानम् ) राजा को (देवी) पटराणी ( अभीक्षणम् ) वार वार ( समुवाच ) कहने लगी ॥३७॥ ___भावार्थ-पुरोहित और उस की स्त्री ये दोनों पुत्रों के वैराग्यमयी वाक्यों को श्रवण कर पुरोहित व स्त्री और दोनों पुत्र चारों ही व्यक्ति भोगों को परित्याग कर रहे हैं। और क्रोड़ों रूपयों की सम्पत्ति को ज्यों की त्यों घर पर छोड़ कर संघम मार्ग को ग्रहण करने के लिये जा रहे हैं । यह खबर सुनते ही गजा उसकी सर्व सम्पत्ति राज्य भण्डार में डलवान का अनुचरो को हुक्म दे दिया तदनु यह सूचना दासी द्वारा राणी को मालूम होते ही अपने प्राण पति नरेश के पास श्रा कर यों कहने लगी ॥ ३७॥ मूल-वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिनो । माहणेण परिञ्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि ॥ ३८॥ For Private And Personal Use Only

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