________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ३५ )
एवमेत्र जातौ शरीरे सत्ता सम्मूर्च्छति नश्यति नावतिष्टते ॥ १८ ॥ अन्वयार्थ - (जाती) हे पुत्रों ! ( यथा ) जैसे ( अग्निः ) आग ( अरणितः ) अग्निकाष्टमथन से ( असन ) नहीं होने पर भी ( सम्मूर्च्छति ) उत्पन्न होती हैं ( क्षीरे) दुग्ध में ( घृतं ) घी ( अथ ) शब्द की भिन्नता ( तिलेषु ) तिलों में ( तैलं ) तेल ' यों ही उत्पन्न होजाते हैं ' ( एवमेव ) ऐसे ही ( शरीरे ) शरीर में (सत्ता) जीव ' उत्पन्न हो जाते हैं ' ( नश्यति ) शरीर ' नाश होता है ' उस समय जीव भी ' ( न ) नहीं (अवतिष्टते) ठहरता है || १८ ||
4
भावार्थ- हे पुत्रों ! जैसे अणि के काष्ट मथन से अग्नि, दुध में घी, तिलों में तेल यों ही उत्पन्न हो जाते हैं । वास्तविक रूप से उन में अग्नि, दुग्ध, घी, नहीं हैं । ऐसे ही इस शरीर में भी यह जीव जो तुम कहते हो वह यों ही पांच तथ्यों का संयोग मिलने पर उत्पन्न हो जाता है । जब पाँच तत्व ( शरीर ) नष्ट होते हैं तब जीव ( आत्मा ) भी समूल नष्ट हो जाता है न स्वर्ग है, न नर्क है, न मोक्ष, केवल यह तो इन्द्र जाल है । किस के लिये तुम व्यर्थ हो साधु बनकर इस शरीरको कष्ट पहुँचाने का सहास कर रहे हो ॥ १८ ॥
मूल-नो इंद्रियगेज्म अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
For Private And Personal Use Only