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( ४४ ) इस प्रकार पिता पुत्र के परस्पर वार्तालाप होने पर पिताने जान लिया कि ये अब संसार में रहने के नहीं हैं। जितने भी मैं ने इनको रोकने के प्रयत्न किये वे सब योंही गये । जब ये दोनों पुत्र संसार परित्याग कर रहे हैं तो मेरा संसार में रहना अयोग्य है। ऐसा विचार कर भृगु पुरोहित अपनी प्रियपत्नि से यो कहने लगा ॥ मूल-पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो,
वासिहि भिक्खायरियाइ कालो। सहाहि रुक्खो लहई समाहिं,
छिन्नाहिं साहाहि तमेव खाणुं ॥ २६ ॥ छाया- प्रहीणपुत्रस्य खलु नास्ति वासो,
वाशिष्टि भिक्षाचर्यायाः कालः । शाखाभिर्वृदो लभते समाधिच्छिन्नाभिः
शाखाभिः स एव स्थाणुः ।। २६ ।।। अन्वयार्थ-( वाशिष्टि ) ह वशिष्ट गोतवाली ( प्रही. णपुत्रस्य ) विना पुत्र वालेको ( खलु ) निश्चय । वासः ) 'संसार में ' निवास करना 'योग्य' (न) नहीं ( अस्ति ) है । उसका तो । (भिक्षाचर्यायाः) भिक्षावृत्ति का (कालः ) समय है जैसे' (वृक्षः) पेड़ ( शाखाभिः ) शाखाओं कर के (समाधि ) आनन्द को (लभते ) प्राप्त होता है (शाखाभिः) शाखाओं कर के
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