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( ४२ ) छाया-यस्यास्ति मृत्युना सख्यं,
यस्य चास्ति पलायनम् । यो जानीते न मरिष्यामि,
स एव (खलु) कांक्षते श्वः स्यात् ॥२७॥ अन्वयार्थ-( यस्य) जिसके ( मृत्युना) मृत्यु के साथ ( सख्यम् ) मित्रता (अस्ति) है (च) और ( यस्य ) जिसके ‘मृत्युसे • ( पलायनं ) भागने का साहस (अस्ति ) है ( यो ) जो ( जानाति ) जानता है कि मैं' (न ) नहीं ( मरिष्यामि ) मरूंगा ( स ) वह ( एव ) ही ( श्वः ) आगामी दिन 'जीने की' (स्यात् ) कदाचित् ( कांक्षते ) इच्छा करता है ।। २७ ॥ _ भावार्थ-हे पिता श्री ! आप कहते हैं कि वृद्धावस्था होने पर दीक्षा लेंगे इसका निश्चय किस को है। वृद्धाव. स्था न होने पहिले ही मृत्यु प्राप्त हो जाय तो इसकी कौन जान सकता है हाँ जिसको इस प्रकार का ज्ञान है कि मैं अमुक दिन ही मरूँगा और दिन नहीं । अथवा जिसके यमराज के साथ मित्रता हो । यद्वा यमराज से बच कर भगजाने का सहास हो और जो जानता हो कि मैं मरूँगा ही नहीं वही शूर वीर मनुष्य धर्म करने में भले ही परहेज करता होगा । हमारी न तो यमराज के साथ मित्रता है और न हमारे में उस से भगजाने की वीरता है । हम नहीं मरेंगे ऐसा हमे विश्वास भी नहीं तब आप के वचन कैसे मानेगे ॥ २७ ॥
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