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(४३) मूल-अजेव धम्म पडिवज्जयामो,
जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। अणागयं नेव य अस्थि किंची,
सद्धाखमं णो विणइत्तु रागं ॥ २८ ॥ छाया-अद्यैव धर्म प्रतिपद्यामहे,
यं प्रपन्ना न पुनर्भविष्यामः । अनागतं नैव चास्ति किश्चिन्,
श्रद्धाक्षमं नो विनीय रागम् ।।२८|| अन्वयार्थ-( किंचित् ) किंचिन्मात्र ' भी विषयादि सुख ऐसे' (नैव ) नहीं (अस्ति ) है कि मुझे , (अना गतम् ) गये काल में प्राप्त नहीं हुए हो अतः ( रागं ) रागको (विनीय ) दूरकर ( अद्यैव ) आजही (नो) हम (श्रद्धाक्षम ) श्रद्धापूर्वक ( धम्म ) धर्म को (प्र. तिपद्यामहे ) अङ्गीकार करेंगे (यं) जिस (प्रपन्नाः)
आश्रित ( न ) नहीं ( पुनः ) फिर ( भविष्यामः) जन्मान्तरों में , होंगे ॥२८॥
भावार्थ-हे पिता! इस संसार में विषयादि सुख ऐसा कोई भी नहीं है जो कि हमे गये काल में नहीं मिला हो। अत एव राग भाव को दूर कर आज ही हम श्रद्धापूर्वक धर्म अ. श्रीकार करेंगे । जिस के धारण करने से संसार में हमारा फिर से जन्म नहीं होगा ॥२८॥
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