Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) (छिन्नाभिः ) रहित ( स एव ) वही वृक्ष ( स्थाणुः ) स्तम्भ ' के समान है , ॥२६॥ भावार्थ - हे वशिष्ट गोत्र में उत्पन्न होने वाली प्राणवल्लभा ! दोनों पुत्रों को मैंने बहुत समझाया पर वे मेरे कथन को नहीं मानते हुए संसार का परित्याग कर रहे हैं। इस लिये बिना पुत्र मेरा भी संसार में रहना योग्य नहीं है । क्योंकि अभोगी दोनों पुत्र तो दीक्षा ले रहे हैं । और मैं फिर भी विषयों की लालसा में बैठा रहूँ यह कभी होने का नहीं, मेरा भी भिक्षावृत्ति करने का समय है । जैसे वृद्ध शाखाओं से आनन्द को प्राप्त होता है । और वही वृक्ष शाखा करके रहित सुशोभित नहीं होता हुआ थंभे के समान दिखाई देता है || २६ ॥ मूल- पंखाविणो व जहेव पक्खी, भिचाविणो व रणे नरिन्दो | विवन्नसारो वणिउब्व पोए, पहीणपुत्तोमि तहा अपि ॥ ३० ॥ छाया - पक्षविहीनो वा यथैव पक्षी, भृत्यविधीनो वा रणे नरेन्द्रः । विपन्नसारावणिग वा पोत, ग्रहणपुत्रोऽस्मि तथाऽहमपि ||३०|| अन्वयार्थ - (यथैव ) जैसे ( पक्षविहीनः ) पर विना (पक्षी) पक्षी जानवर ( वा ) अथवा ( रणे) संग्राम में For Private And Personal Use Only

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