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से शरीर का नाश होने पर प्रात्मा का नाश नहीं होता है वह तो नित्य, अजर, अमर है । अान्तरिक दुर्गुणों ने आत्मा को बन्धन में कर रखी है घट अाकाशवत् । और ये ही दुर्गुण आत्मा के लिये संसार का हेतु बन रहे हैं । जब ये दुर्गुण प्रात्मा से दूर होजायगें तव वह श्रात्मा परम सुख में प्राप्त होजायगी । अत एव स्वर्ग है. नर्क है, मोक्ष है, सब कुछ है जो जिसकी इच्छा होगा वह प्राप्त करगा ॥ १६ ॥ मूल-जहा वयं धम्ममजाणमाणा,
पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। उरुन्भमाणा परिरक्खियंता,
तं नेव भुज्जोऽवि समायरामो ॥ २० ॥ छाया-यथा वयं धर्ममजानानाः पापं पुरा कर्म अकाम मोहात। अवरुध्यमानाः परिरक्षमाणाः, तत्रैव भूयोऽपि समाचरामः॥२०॥
अन्वयार्थ ( यथा ) जैसे ( धर्मम् ) धर्मको (अजानानाः ) नहीं जानते हुए ( वयं ) हम ( पुरा) पहिले ( पापं ) पाप ( कर्म) क्रिया ( मोहात् ) मोहसे ( अकाम) किया (परिरक्षमाणाः ) चौतरफ से रक्षा के साय ( अवरुध्यमानाः ) रोके हुवे हम (तत्) वह पाप ( भूयोऽपि ) फिरभी (नैव ) नहीं (समाचरामः) करेंगे ॥२०॥
है पिता श्री ! हम धर्म नहीं जानते थे तब पहिले अक्षात अवस्था में मोहके वश अनेक पाप किये थे । और
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