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( ३८ )
आपने भी कई प्रकार का झूठा ढकोसला दिखाकर अभी तक संसार में रक्षा के साथ फुसला रखे थे पर अब हम उन दुष्कृतों को पुनरपि जान बुझ कर नहीं करेंगे । जो श्राप हमे समझा रहे हैं यह श्रापका स्वार्थ है ॥ २० ॥
मूल - अभायंमि लोयंम्मि, सव्वउ परिवारिए । अमोहाहिं पडतीहिं, गिहंसिन रहं लभे ॥ २१ ॥ छाया - अभ्याहते लोके, सर्वासु परिवारिते
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अमोघाभिः पतीभिः गृहे न रनिं लभावहे ||२१|| अन्वयार्थ - ( लोके) लोक ( अभ्याहते ) पीड़ित ( सर्वासु ) सर्व दिशा ' ( परिवारिते ) बिंटा हुआ ( अमोघाभिः ) अविश्रामधारा ( पतंतीभिः ) गिरती ( गृहे ) घर में ( रतिं ) आनन्द ( न ) नहीं ( लभाव ) प्राप्त होता है ।। २१ ।।
भावार्थ - हे पिता ! इस संसार में प्राणिमात्र पीड़ित और सर्व दिशाओं में परिवेष्टित हो रहे हैं । सदैव श्रमोघ धारा पड़ रही है । इस लिये हम ऐसे संसार में श्रानन्द कैसे पा सकते हैं ॥२१॥ मूल- केण अभाओ लोओ, केण वा परिवारियो ।
का वा अमोहा वुत्ता, जाया चिंतावरो हुमि ||२२|| छाया - केनाभ्याहतोलोकः केन वा परिवारितः ।
का वामोघोक्ता, जातौ चिन्तापरो भवामि ||२२|| अन्वयार्थ - (जाती) हे पुत्रों ! ( केन ) किस तरह
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