Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया-धनं प्रभूतं मह स्त्रीभिः स्वजनास्तथा कामगुणा:प्रकामा:। तपःकृते तप्यते यस्य लोकस्तत्मस्वाधीनमिहैव युषयोः ।।१६।। अन्वयार्थ-(प्रभूतं बहुत (धन) द्रव्य (सह स्त्रीभिः ) साथ स्त्री (स्वजनाः) परिवार (तथा) तैसे ही ( प्रकामाः) खूब (कामगुणाः) काम भोग (तपः) कष्ट (कृते) इत्यादिको प्राप्त करने के निमिन (यस्य)जिसके (लोकः) मनुष्य (तप्यते) परिश्रम उठाते हैं (तत्) वे (सर्वम्)मब (युवयोः) तुमको ( इहैव ) यहाँ पर ही ( स्वाधीनम् । स्वाधीन है ।। १६ ।। भावार्थ-हे पुत्रों ! संसार में तो धन , स्त्री , परिवार, भोगोपभोग आदिको प्राप्त करने के लिये मनुष्य अनेक प्रकारका कष्ट, और भाति २ का परिश्रम उठाते हैं पर तुम्हे तो बिना ही परिश्रम किये हुए यहाँ सब सुख प्राप्त हो रहे है। फिर तुम इन सुखों को भागने के लिये शिर क्यों हिला रहे हो ॥ १६ ॥ मूल-धणेण किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहिं चेव । समणा भविस्सामु गुणोधारी, बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ॥ १७॥ छाया-धनेन किं धर्मधुराधिकार, स्वजनेन वा कामगुणैश्चैव । श्रमणौ भविष्यावोगुणौधधारिणी, बहिर्विहारावभिगम्य भिदाम् ।। १७ ॥ For Private And Personal Use Only

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