Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 29
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) छाग-प्रियपुत्रको द्वावपि ब्राह्मणस्य, स्वकमेशीलस्य पुरोहितस्य । स्मृत्वा पौराणिकीन्तत्र जाति, तथा सुचीर्ण तपः संयमं च ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ (स्वकर्मशीलस्य) अपने कर्म काण्डों में नि. पुण (ब्राह्मणस्य ) ब्राह्मण (पुरोहितस्य ) पुरोहित के (द्वावपि) दोनों ही (प्रियपुत्रको) प्रिय पुत्र (तत्र) वहाँ, (पौराणिकी) पूर्व (जाति) जन्मको (तथा) तथा प्रकार का (सुचीर्ण ) अङ्गिकार किया हुआ (तपः) तपवत (च) और (संयम) संयमको (स्मृत्वा) स्मरण कर ।। ५॥ भावार्थ-अपने क्रिया काण्ड में निपुण ऐसा जो वह पुरोहित ब्राह्मण उसके उन दोनों पिय पुत्रों ने जाति स्मरण ज्ञान द्वारा विचार किया कि अपन ने अगले जन्म में किस प्रकार का तपव्रत और संयम अङ्गीकार किया था वह सब उनको भाषित होने पर फिरभी वैसा ही करने के लिये उत्तेजित हुए ॥ ५॥ मूल-ते कामभोगेसु असज्जमाणा, माणुस्सएसु जे यावि दिव्वा । मोक्खाभिकखी अभिजायसड्ढा, तायं उवागम्म इमं उदाहु ॥ ६॥ छाया-तौ कामभोगेष्यसंसजतो. मानुष्यकेषु ये चापि दिव्याः। मोक्षाभिकांक्षिणाभिजातश्रद्धौ तातमुपागम्येदमुदाहरताम् ॥६॥ For Private And Personal Use Only

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