Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८ ) यन्तं ) निमंत्रण करते हुवे (तं) उस (पुरोहितं ) पुरोहित को (प्रसमीक्ष्य) देखकर (तो) वे दोनों (कुमारको) कुमार ( वाक्य) · उचतुः' कहते हुए ॥ १० ॥ ११ ॥ ___भावार्थ-दोनों पुत्रों को पिताने बहुत समझाया पर वे दोनों पुत्र अपने प्रण से एक पेरभी पीछे न हटे तब शोक रूप अग्नि. प्रात्मा के गुण रूप इन्धन, मोह रूप हवा से प्रज्वलित हुश्रा हृदय जिसका ऐसा वह पुरोहित संताप और परित्राप पाता हुअा औरभी अपने पुत्रों के वैराग्य पथ से पृथक करने के लिये नाना प्रकार के बहत से धन, धान्य, स्त्रीभोग आदि क्रमवार भोगोपभोगों को विनम्र भावोंके साथ निमंत्रण करता हुवा । पिताको अज्ञान से श्राछादित देखकर वे दोनों कुमार यो बोले ॥ १० ॥ ११ ॥ मूल-वेया अहीया न भवन्ति ताणं, भुत्ता दिया निति तमं तमेणं । जायाय पुत्ता न हवन्ति ताणं, को णाम ते अणुमन्नेजएयं ।। १२॥ छाया-वेदा आधीता न भवन्ति त्राणं, भुक्ता द्विजा नयंति तमस्तमसा। जाताश्च पुत्रा न भवन्ति त्राणं, को नाम तेऽनुम न्येतेतत् ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ-(वेदाः) वेदों को (अधीताः) पढने से ही वेद' (त्राणं) शरणभूत (न) नहीं (भवन्ति) होते है द्विजाः) 'पथ For Private And Personal Use Only

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