________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( २६ ) भावार्थ-इस प्रकार दोनों पुत्रों के दीक्षा की श्राशा याचने के बाद इन्हीं के पिता भृगु-पुरोदिन उन्ह दोनों भाव मुनियों के तप, संयम को व्याघात पहुंचाने के लिये इस प्रकार कहने लगा कि हे पुत्रों! इस संसार में वदकं जानने वाले नयन यह कहते हैं कि बिना सन्तान हुए उसकी सदति नहीं होती ॥८॥ मूल-अहिज वेए परिविस्स विप्पे,
पुत्ते परिठ्ठप्प गिहंसि जाया। मोचाण भोए सह इत्थियाहिं,
पारगणगा होह मुणी पसत्था ॥६॥ छापा-अधीत्य वेदान्परिवष्य विमान्पुत्रान् परिष्टाप्य गृहे जाती। मुक्त्वा भोगान् सहस्त्रीभिरारण्यको भवतं मुनी प्रशस्तौ ॥६॥
अन्वयार्थ-(जाती) हे पुत्रो (वेदान् ) वेदों को (अधीत्य) पढ़ कर (विप्रान् ) ब्राह्मणों को (परिवेष्य) भोजन करा कर (स्त्रीभिः स्त्रियों के (सह ) साय (भोगान् ) भोगों को (भुक्त्वा ) भांग कर (गृहे । घा में (पुत्रान् ) पुत्रों को (परिष्टाप्य) स्थापन कर (भारण्यको) वान प्रस्य (मुनी) माधु (भवतम् ) होना (प्रशस्तौ) प्रसंशनीय है ॥ ६ ॥
भावार्य-हे पुत्रों ? हमारा तुम से यह कहना है कि पहले वेद शास्त्र पढो. ब्राह्मणों को खूप खिलाओ पिलाओ, स्त्रियों के साथ भोग भोगो, दो चार पुत्र होने के बाद उन पुत्रों को होशियार कर गृहस्थाश्रम में प्रवर्त कर दे फिर तुम को मुनिति प्रहप करना प्रसंशनीय है ॥६॥
For Private And Personal Use Only