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( २५ )
आनन्द को (न) नहीं (लभावहे) प्राप्त कर सके (आमन्त्रयावहे) हम पूछते है आपको (मौनं ) दीक्षा ( चरिष्यामः) अङ्गीकार करेंगे ॥ ७ ॥
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भावार्थ - हे पिता श्री ! यह मनुष्य भव अल्प आयु बाला सदैव रहने का नहीं हैं, नश्वर है । और इस स्वल्प श्रायु में भी भोगोपभोग भोगने के लिये खांसी धासी बुखार निद्रा शोक आदि अनेक प्रकार की बाधाएं श्रा खड़ी होती हैं । ऐसी श्रनित्य अवस्था में उस परम शाश्वत सुखों को छोड़ कर गृहस्थाश्रम के पौगलिक क्षणिक सुखों में हमें श्रानन्द नहीं प्राप्त होता है । श्रत एव हम मुनिवृत्ति ग्रहण करेंगे । आप हमें श्राज्ञा प्रदान करें ॥ ७ ॥ मूल-ग्रह तायगो तत्थ मुणीए तेसिं,
तवस्स वाघायकरं वयासी ।
इमं वयं बेयविओ वयन्ति,
जहा न होई असुयाण लोगो ॥ ८ ॥
छाया - अथ तातं कस्तत्र मुन्योस्तयोस्तपसोव्याघातकरमवादीत् । इमां वाचं वेदविदो वदन्ति, यथा न भवत्यसुतानं लोकः ॥ ८ ॥
अन्वयार्थ - ( अथ) इस के बाद ( तातकः ) पिता ( तत्रः ) तहाँ ( मुन्योः ) ' भाव' मुनि ( तयोः) उन्ह के (तपसः ) तपसा को (व्याघातकरं ) बाधा पहुंचाने को अवादीत् ) कहने लगा ( वेदविदः ) वेद के जानने वाले ( इमां ) यह (वाचं) वचन (बदन्ति ) कहते (यथा) जैसे (असुतानं ) बिना पुत्र ( लोक: ) परलोक (न) नहीं (भवति) होता है ॥ ८ ॥
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