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(२४ ) अन्वयार्थ (मानुष्यकेषु) मनुष्य सम्बन्धी (ये चापि) जो और भी (दिव्याः ) देवता सम्बन्धी (कामभोगेषु) काम भोगोंमें (असंसजतौ ) संसर्ग नहीं करते हुए (अभिजातश्रद्धौ) उत्पन्न हुई है तत्व रुची ऐसे (मोक्षाभिकांक्षिणी) मोक्षकी इच्छा करने वाले (तो) वे दोनों पुत्र (तातमुपागम्य) पिता के पास आकर (इदं। इस प्रकार (उदाहरताम) कहते हुए ॥ ६ ॥
भावार्थ-उत्पन्न हुई है तत्व रूची जिनको ऐसे वे दोनों पुत्र मोक्षाभिलाषी मनुष्य सम्बन्धी और देवता सम्बन्धी काम भोगों का संसर्ग नहीं करते हुवे अपने पिता के पास आकर इस प्रकार कहने लगे ॥६॥ मूल-असासयं दडु इमं विहारं,
बहुअंतरायं न य दीहमाउं । तम्हा गिहंसि न रइं लभामो,
आमंतयामो चरिस्सामु मोणं ॥ ७ ॥ छाया-प्रशाश्वतं दृष्ट्वेमं विहारं, बहन्तरायं न च दीर्घमायुः। तस्माद्गृहे न रतिं लभावहे, आमंत्रयावहे चरिष्यामो मौनं ॥७॥ __ अन्वयार्थ-(इम) यह (विहारं) मनुष्य भव अशाश्वतं) हमेशा का नहीं है ‘तदपि' (बह्वन्तरायं) बहुत अन्तराए है, (च) और (आयुः) उम्र (दीर्घम् ) लम्बी (न) नहीं है 'ऐसा' (दृष्ट्वा) देख कर (तस्मात्) इस कारण से (गृहे) घर में (रतिं)
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