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(२२) संसारचकस्स विमोक्खणटा,
दहण ते कामगुणे विरत्ता ॥४॥ छाया-जातिजरामृत्युभयाभिभूनौ, बहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ । संसारचक्रस्य विमोक्षणार्थ, दृष्ट्वा तो कामगुणेषु विरक्तौ ॥४॥
अन्वयार्थ-(जातिजरामृत्युभयाभिभूतौ) जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु भय से भयभीत होने वाले (बहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ) संसार से बहारका स्थान में प्राशक्त चित्तवाले (तो) वे दोनों कुमार ( दृष्ट्वा ) · उन साधुको ' देख कर (संसारचक्रस्य) संसारचक्र को (विमोक्षणार्थ) दूरकरने के लिये (कामंगुणेषु) विषय वासना से (विरक्ती) विरक हुवे ।। ४॥ .. भावार्थ-संसार में जन्म जरामृत्यु आदि भयों से भयभीत होने वाले और संसार से बहार का जो स्थान (मोक्ष) उस स्थान को प्राप्त करने के लिये प्रासक चिस बाल घे दोनो राज्य पुरोहितके पुत्र सहुरु को देख कर संसार के संपूर्ण विषय वासनाओं से विरक्त हुए ॥४॥ मूल-पियपुत्तगा दोनिवि महाणस्स,
सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स । सरितु पोराणिय तत्थ जाइ,
तंहा सुचिगणं तव संजमं च ॥५॥ १-पंचमी विमति के स्थान में सप्तमी हुई।
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