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हमारे ऐसे भाग्य कहां है जो कि मेरे कुल में से प्रभ भक्त हो! स्वामिन् ! हम उन्हें कभी भी न रोकेंग, भले ही व गर्भ में से निकलते ही साधु हो जावे. यह उन की इच्छा। यह बात श्राप को प्रतिज्ञा के साथ कहते हैं कि हम उन्हें कदापि नहीं रोकेगे । हम तो केवल वांझ के कलंक को दूर होना ही पर्याप्त समझते हैं। इस प्रकार कथनोपकथन के बाद दोनों देव जंगल में पा स्वर्ग में जा विराजे।
कुछ समय के पश्चात् वे दोनों ही देव अपना प्रायुष्य पूर्ण कर उस भृगु पुगेहिल का पत्नी " यशा" के गर्भ मे श्राय । जब मासिक श्रावर्तन के समय रजोदर्शन न हुआ तब उस को निश्चय हो गया कि मैं गर्भवती हूं। ऐसा निश्चय होने पर अपने श्राराध्य पतिदेव को कहने लगी कि " जो वे साधु कह गये थे वही मुझे निश्चय हो चुका, इससे अाजही से ऐसी बातों पर पूरा ध्यान रखना अपना ध्येय समझंगी, जिनका जानना और पालन करना प्रत्येक स्त्री का कर्तव्य है" । पुरोहित अपनी पत्नी के आशा पूरित बचन सुन कर बड़ा प्रसन्न हुश्रा और कहने लगाः-" प्रिये ! प्रथम तो जैन साधु कहते ही नहीं, यदि हमारे भाग्य से उन्हों ने कह ही दिया है तो वैसा अवश्य ही होगा।
यशा का गर्भ दिन २ बढता गया और नव महीने साढ़े सात अहो रात्रि पूर्ण होने पर युग्म सन्तान का शुभ मुहूर्त में जन्म हुआ दो पुत्रों का जन्म होना सुन कर माता पिता और कुटुम्बी जनों का हृदय सहज ही में अानन्द सागर में हिलोरे मारने लगा। पिता और समस्त पारिवारिक लोगों ने बड़ा उत्सव मनाया। उन्होंने श्रद्धा और प्रेम से दीन अनाथ लोगों को अनेक प्रकार के दान दिये । पुरोहितजी के सब मित्र स्नेही और बन्धु बान्धयों ने भी पुत्र जन्म के इस आनन्द में उनको बधाई दी । सब ने मिल
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