Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १७ ) सारमें क्या करूंगी ? इनकी तरह से मैं भी अपनी श्रात्मा का कल्याण क्यों न करूं।" ऐसा पक्का विचार कर चारों ही व्यक्ति नगरी में आकर अपनी अतुल धन राशि को छोड़ साधु बन ने को घर से चल निकले । यह समाचार सारी नगरी में बिजली की भाँति फैल कर राजा तक पहुंचा । राजा ने उस समय के नियमानुसार ' जिस धन का कोई स्वामी न रह जाय वह कोष में मंगा लिया जाय, पुरोहित के सांर धन सम्पतिको राज- कोष में डालने के लिये अनुचरों को श्राज्ञा देदी। वे लोग पुरोहित की सारी धन सम्पति को ला लाकर राज्य कोष में डालने लगे । यह समाचार रानी कमलावती को मालुम हुआ तो उस ने राजा से निवेदन किया: प्राणनाथ ! दान में जो द्रव्यं श्राप दे चुके हो उसे पीछा लौटाना बुद्धिमानों का काम नहीं है, दिये दान को तो छूने का भी विचार न करना चाहिये । राजा बोला:" रानी ! संभलकर बोलो राज्य भंडार मै तो ऐसे ही अन श्राता जाता है, यदि तुम्हारे को पसन्द न हो तो संसार में क्यों बैठी हुई इसी धन से मौज उड़ा रही हो ? रानी बाली - " प्राणनाथ ! मैं इस मौज को मौज नहीं समझती वरन् बन्धन समझती हूं। जैसे सोने के पिंजरे में तोता भी बन्धन रूप दुख अनुभव करता है । इसी प्रकार हे राजन् ने भी इन पौगलिक सुखों के बन्धन में दुख समझती हूँ ! मेरा मन इन सुखों से उपरति हो रहा है । आप श्राज्ञा प्रदान करें तो मैं भी साध्वी बनूंगी और इसकी मुझे उत्कट इच्छा हो रही है सो हे स्वामी, इस विनय को स्वीकार कीजिये और श्रीमहा राज, आपसे भी विनय करती हूं कि आपभी सोचिये क्या 59 २ For Private And Personal Use Only

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