Book Title: Ikshukaradhyayan
Author(s): Pyarchandji Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashak Samiti

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर आशीर्वाद दिया कि " ईश्वर कृपा से यह संतान चिरायुः हो और भविष्य में ये बालक दीर्घायु हो कर खूब यश और मान प्राप्त करें" । यद्यपि यह श्राशीर्वाद केवल धर्तमान समय के विचारों पर दृष्टि रख कर साधारण रीति से ही दिया गया था। जैसा कि प्रायः होता है; तथापि समय पाकर वह सार्थक हुा । पहिले दिन “ जात कर्म " किया , दूसरे दिन जाग्रण हुश्रा, तीसरे दिन बालकों को चन्द्र सूर्य के दर्शन कराये गये । इस प्रकार एक के बाद एक संस्कार को करते हुए दस दिन पूरे हुए । ग्यारहवें दिन अशौचकर्म से निवर्तन हो बारहवें दिन सम्वन्धियों को भोजन खिला पिला कर दोनों युग्मपुत्रों के नाम देवभद्र और यशोभद्र रखे गये । अब व दोनों पुत्र द्वितीय चन्द्रवत् अवस्था में बढ़ते गये । यों बढते २ जब पांच छः वर्ष के होने आये तब माता पिता को पिछली बात का खयाल श्रागया कि जो साधु अपने को पुत्र होने का कह गये थे वे पुत्र तो हो गये पर साथ में यह भी कह गये थे कि वे दोनों पुत्र संसार परित्याग कर साधु बनेंगे । अतःकहीं ऐसा न हो कि ये पुत्र अपन को छोड़ साधु बन जावें । इस लिये इसका उपाय अभी से ही ढूंढना अनुपयुक्त न होगा । अतएव प्रथम तो यह उपाय है कि यह शहर छोड़ कर किसी एक घने जंगल में जाकर नि. वास करें क्योंकि उन जैसे साधु तो इस शहर में हर समय अाते ही रहते हैं और उनकी संगति भी ऐसी है कि क्षणमात्र में ही संसारी को वैरागी बना देती हैं। इस लिये अपन इन पुत्रों को लेकर उस घने जंगल में चल बसे जहां कोईभी साधु ऐसा न पा सके। ऐसा विचार कर चारों व्यक्ति ने घने विपिन में जाकर For Private And Personal Use Only

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