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ज्ञानसार
रंग को निरखकर मन ही मन सपनों के महल सजाता अबाध रूप से घूमता ही रहता है । एक पल के लिये भी रुकने का नाम नहीं लेता । चक्षुरिन्द्रिय द्वारा उत्पन्न रूप-प्रीति के वशीभूत हो, अपने आप पर से नियंत्रण खो बैठता है । वह बरबस प्रज्वलित दीपशिखा को आलिंगन कर बैठता है । लेकिन उसे क्या मिला ? आलिंगन से प्यार मिला ? उत्साह और जोस में वृद्धि हुई ? अमृतवर्षा हुई ? नहीं, कुछ भी नहीं मिला । मिली सिर्फ आग, चिंगारी की तपन और वह क्षणार्ध में जल कर खाक हो गया ।
अरे, उस भावुक भ्रमर को तो तनिक देखो ! मृदु सुगन्ध का बड़ा रसिया ! जहाँ सुगन्ध आयी नहीं कि बड़े मिया भाग खड़े हुए । होश खोकर बेहोश होकर ! लेकिन सूर्यास्त के समय जब कमल-पुष्प संपुटित होता है, तब यही रसिया भ्रमर उसमें अनजाने बन्द हो जाता है । फलत: उसकी वेदना का पारावार नहीं रहता। उसकी वेदना को देखने और समझनेवाला वहाँ कोई नहीं होता और जब दूसरे दिन कमल-पुष्प पुनः खिलता है, तब उसमें से इस अभागे प्रेमी का निर्जीव शरीर धरती पर लुढक जाता है । लेकिन कमल-दल को इसकी कहाँ परवाह होती है ? 'तू नहीं और सही', सूक्ति के अनुसार वह निष्क्रिय, निष्ठुर बना रहता है। जबकि इधर पूर्व-प्रेमी का स्थान दूसरा ग्रहण कर लेता है और कमाल इस बात का है कि वह पूर्व-प्रेमी की ओर दृष्टिपात तक नहीं करता। यही तो लंपटता है, जिसकी भोग बनी जीवात्मा अपने आप को बचा नहीं सकती और दूसरे की ओर नज़र नहीं डालती ।
रस में ओत-प्रोत मछली की दशा भी कोई अलग नहीं है, बल्कि वही होती है, जो भोले हिरण और भावुक भ्रमर की होती है। जब मच्छीमार कांटे में बींध, पानी से ऊपर निकालता है अथवा अपने जाल को पत्थर पर पछाडता है धारदार चाकु से छीलता है या उबलते तेल में तलता है, तब मछली की कैसी दुर्गति होती है ? स्पर्शेन्द्रिय के सुख मैं मत्त बने गजेन्द्र को भी मृत्यु की शरण लेने को विवश बनना पड़ता है। मधुर स्वर का प्रेमी हिरण भी शिकारी के तीक्ष्ण तीर का शिकार बन जाता है ।
इन बिचारे जीवों को तो एक-एक इन्द्रिय की परवशता होती है, जबकि मनुष्य तो पाँचों इन्द्रियों के परवश होता है। उसकी दुर्दशा कैसी ?