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ज्ञानसार
को डूबते नहीं देख सकता, बल्कि तट पर खड़े लोग ही उसकी वेदना, विह्वलता और असहाय स्थिति समझ सकते है । 'परिग्रह' ग्रह से मुक्त महापुरुष ही उसे देख सकते हैं कि इस ग्रह के सर्वभक्षी जाल में फँसे जीव किस कदर तडपते हैं, छटपटाते हैं ।
धन सम्पत्ति एवं वैभव के उत्तुंग शिखरों पर आरोहण करने के लिए प्रयत्नशील मानव को संबोधित कर पूज्य उपाध्ययजी महाराज कहते हैं : 'हे जीव ! तुम इस निरर्थक प्रयत्न का परित्याग कर दो । आज तक कोई मानव अथवा देव-देवेन्द्र भौतिक सम्पत्ति के शिखर पर लाख प्रयत्नों के बावजूद भी पहुँच नहीं पाया है । कोई उसके शिखर पर पहुँच ही नहीं पाता... वह अनन्त है। दूर के ढोल हमेशा सुहावने होते हैं। अतः तुम उसकी बुलंदी पर पहुँचने के अरमान दिल से निकाल दो । व्यर्थ की विडंबना क्यों मोल लेते हो ?
अरे, तुम उसकी वक्रता तो देखो। वह हमेशा जीव की इच्छा के विपरीत ही चलता है । जिसके हृदय में वैभव का जरा भी मोह नहीं, उसके इर्द-गिर्द श्री और सम्पत्ति की अभिनव दुनिया खडी हो जाती है। जबकि जो यश और संपदा के लिए निरंतर छटपटाता है अधीर और आतुर है, उससे वह लाखों योजन दूर रहती है । परिग्रह ही मानव की उदात्त भावनाओं को भस्मीभूत करता है .... विवेक का विलीनीकरण करता है । फलतः मानव वक्रगति का पथिक बन जाता है... सरल चाल कभी चलता नहीं ।
त्रिलोक को सदा-सर्वदा अशान्त और उद्विग्न करनेवाले परिग्रह नामक ग्रह का आजतक किसी खगोलशास्त्री ने संशोधन किया ही नहीं । उसके व्यापक प्रभावों का विज्ञान खोजा नहीं गया है। अलबत्ता, इसकी वास्तविकता को आज तक सिर्फ सर्वज्ञ परमात्मा ही जान पाये हैं । अतः उन्होंने इसकी भीषणता / भयानकता का वर्णन किया है ।
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असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् ।
मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात्, परिग्रहनियंत्रणम् ॥ - योगशास्त्र
परिग्रह अर्थात् मूर्च्छा... गृद्धि... आसक्ति | इसका फल है : असंतोष, अविश्वास और आरम्भ-समारम्भ । मतलब, दुःख, कष्ट और अशान्ति । अतः सदैव