________________
परिशिष्ट : चार निक्षेप
५७९
'यादृच्छिक' प्रकार में ऐसे नाम आते हैं कि जिनका व्युत्पत्ति अर्थ नहीं होता है । इसमें तो स्वेच्छा से ही नाम दिये जाते हैं ।
ये नाम जीव और अजीव के हो सकते हैं ।
स्थापना निक्षेप :
यत्तु तदर्थ वियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥
भाव इन्द्र आदि का अर्थ रहित (परन्तु अर्थ के अभिप्राय से) साकार या निराकार जो किया जाता है उसे स्थापना कहते हैं ।
भाव - इन्द्रादि के साथ समानता हो उसे साकार स्थापना कहते हैं ।
भाव - इन्द्रादि के साथ असमानता हो उसे निराकार स्थापना कहते हैं ।
काष्ठ, पत्थर, हाथीदांत की मूर्तियाँ, प्रतिमायें आदि को साकार स्थापना कहते
1
हैं । ये दो तरह की होती हैं । (१) शाश्वत् (२) अशाश्वत् । देवलोक आदि में शाश्वत् जिन प्रतिमाएँ होती हैं, जबकि दूसरी प्रतिमायें शाश्वत् नहीं भी होती हैं ।
• शंख आदि में जो स्थापना की जावे उसे निराकार स्थापना कहते हैं ।
•
I
शाश्वत् जिन प्रतिमाओं में 'स्थापना' शब्द की व्युत्पत्ति 'स्थाप्यते इति स्थापना' चरितार्थ नहीं होती है । क्योंकि वे शाश्वत् हैं । शाश्वत् को कोई स्थापित नहीं कर सकता है । इसलिए वहाँ 'अर्हदादिरूपेण तिष्ठतीति स्थापना, यानी कि 'अरिहंत आदि रुप से रहते हैं वह स्थापना' ऐसा व्युत्पत्ति- अर्थ करना चाहिए ।
नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप में इस तरह बहुत अन्तर हैं । परमात्मा की स्थापना (मूर्ति), देवों की स्थापना, गुरुवरों की स्थापना के दर्शन-पूजन से इच्छित लाभों की प्राप्ति प्रत्यक्ष दिखती है। इसके अलावा प्रतिमा के दर्शन से विशिष्ट कोटि के भाव भी जाग्रत होते हैं ।
द्रव्य निक्षेप :
'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्द्द्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥'
२. अनुयोग द्वार - सूत्र
३. अनुयोग द्वार - सूत्र