Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 606
________________ परिशिष्ट : चार अनुयोग ५८१ नो आगम से भावक्रिया तीन प्रकार की है : (१) लौकिक (२) कुप्रावचनिक (३) लोकोत्तर (१) लौकिक : लौकिक शास्त्रों के श्रवण में उपयोग । (२) कुप्रावचनिक : होम, जप... योगादि क्रियाओं में उपयोग । (३) लोकोत्तरिक : तच्चित्त आदि आठ विशेषताओं से युक्त धर्मक्रिया (प्रतिक्रमण आदि) सारांश यह है कि प्रस्तुत क्रिया छोड़कर दूसरी तरफ मन-वचन-काया का उपयोग न करते हुए जो क्रिया की जाती है उसे भावक्रिया कहते हैं। २८. चार अनुयोग राग', द्वेष और मोह से अभिभूत संसारी जीव शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों से पीड़ित हैं। इन समस्त दुःखों को दूर करने के लिए हेय और उपादेय पदार्थ के परिज्ञान में यत्न करना चाहिए । यह प्रयत्न विशिष्ट विवेक के बिना नहीं हो सकता है। विशिष्ट विवेक अनन्त अतिशय युक्त आप्त पुरुष के उपदेश के बिना नहीं हो सकता है। राग, द्वेष और मोह आदि दोषों का सर्वथा क्षय करनेवाले को 'आप्त' कहते हैं। ऐसे आप्तपुरुष 'अरिहंत' ही हैं । अरिहंत भगवन्त का उपदेश ही राग-द्वेष के बन्ध को तोड़ने में समर्थ है। इसलिए इस अर्हद्वचन की व्याख्या करनी चाहिए । पूर्वाचार्यों ने चार अनुयोगों में अर्हद्वचन को विभाजित किया है। (१) धर्मकथा-अनुयोग (२) गणित-अनुयोग (३) द्रव्य-अनुयोग (४) चरण-करण-अनुयोग अनुयोग अर्थात् व्याख्या । धर्मकथाओं का वर्णन श्री उत्तराध्ययन आदि में है। गणित का विषय सूर्यप्रज्ञप्ति आदि में वर्णित है। द्रव्यों की चर्चा-विचारणा चौदह पूर्व में और सन्मतितर्क आदि ग्रन्थों में है। चरण-करण का विवेचन आचारांग सूत्र आदि में किया गया है। १. आचारांग-सूत्र टीका, श्री शीलांकाचार्यजी।

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