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द्रव्यपूजा और भावपूजा के भेद यहाँ भेदोपासना और अभेदोपासना की दृष्टि से बताये गये हैं। साथ हो अभेदोपासना रूपी भावपूजा के एकमात्र अधिकारी केवल निर्ग्रन्थ मुनिश्रेष्ठों को ही माना है ।
भावपूजा
परमात्म-स्वरूप के साथ आत्मगुणों की एकता की अनुभूति करनेवाला मुनि कैसा परमानन्द अनुभव करता है, उसका वर्णन करने में शब्द और लेखनी दोनों असमर्थ हैं | वस्तुतः अभेदभाव के मिलन की मधुरता तो संवेदन का ही विषय है, ना कि भाषा का !
प्रस्तुत अष्टक में पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने भावपूजा के सम्बन्ध में उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया है। साथ ही भावपूजा में प्रयुक्त होने का उपदेश मुनिश्रेष्ठों को दिया है । अभेदभाव से परमात्मस्वरुप को अनन्य उपासना का मार्ग बताया है ।
साथ ही साथ, गृहस्थ वर्ग के लिये भावपूजा का प्रकार बताकर गृहस्थ मात्र को भी भेदोपासना की उच्च कक्षा बतायी है। ताकि वह परमात्मोपासना में प्रवृत्त हो, आत्महित साध सके । अरे, आत्महितार्थ आत्म-कल्याणार्थ ही जो जीवन व्यतीत कर रहा है- उसे यह विविध उपासना का मार्ग काफी पसन्द आएगा और इस दिशा में निरन्तर गतिशील होगा ।