Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 569
________________ ५४४ ज्ञानसार 'इन्द्रियों के उपभोग्य विषय, पाँच इन्द्रियाँ, औदारिकादि पाँच शरीर, मन और आठ प्रकार के ज्ञानावरणीयादि कर्म, जो कुछ भी मूर्त हैं, वह सब पुद्गल समझना' । श्री 'तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा है : पञ्चविधानि शरीराण्यौदारिकादीनि वाङ्मनः प्राणापानाविति पुद्गलानामुपकारः । -स्वोपज्ञ-भाष्ये, अ० ५, सू० १९ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण-ये पाँच शरीर, वाणी, मन और श्वासोच्छवास, पुद्गलों का उपकार हैं, अर्थात् ये पुद्गलनिर्मित हैं । इस प्रकार पंचास्तिकाय का स्वरुप और उसका कार्य संक्षेप में बताकर अब पंचास्तिकाय की सिद्धि की जाती है । धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के बिना जीव और पुद्गलों की गति तथा स्थिति नहीं हो सकती। अगर धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के बिना भी जीव-पुद्गल की गतिस्थिति हो सकती हो तो लोक की तरह आलोक में भी जीव-पुद्गल जाने चाहिये । अलोक अनंत है । इस लोक में से निकलकर जीव-पुद्गल आलोक में चले जायें और इस प्रकार लोक जीव-शून्य तथा पुद्गलशून्य बन जाय ! न तो ऐसा कभी देखा गया है और न ऐसा ईष्ट है । इसलिये जीव और पुद्गल की गति-स्थिति की उपपत्ति हेतु धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का अस्तित्त्व सिद्ध होता है। जीवादि पदार्थों का आधार कौन ? अगर आकाशास्तिकाय को नहीं मानते हैं तो जीवादि पदार्थ निराधार बन जायेंगे | धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय जीवादि के आधार नहीं बन सकते । वे दोनों तो जीव-पुद्गल की गति-स्थिति के नियामक हैं और दूसरे से साध्य कार्य तीसरा नहीं कर सकता। अत: जीवादिकों के आधार रुप से आकाशास्तिकाय की सिद्धि होती है। प्रत्येक प्राणी में ज्ञानगुण स्वसंवेदनसिद्ध है । गुणी के बगैर गुण का अस्तित्व कैसे हो सकता है ? प्र० स्वसंवेदनसिद्ध ज्ञानगुण का गुणी शरीर को मानो तो ? उ० गुण के अनुरुप गुणी होना चाहिये । ज्ञान गुण अमूर्त और चिद्रूप है। सदैव इन्द्रियविषयातीत है ! गुणी भी उसके अनुरूप होना चाहिये । वह जीव है, देह नहीं । जो अनुरूप न हो, अगर उसे भी गुणी माना जाय तो अनवस्था दोष आता है। तो फिर रुप-रसादि गुणों के गुणी के रुप में आकाश को भी मान लेना चाहिये ! . • घट... पटादि कार्यों से पुद्गलास्तिकाय का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष ही है।

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