Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 571
________________ ५४६ ज्ञानसार प्रत्येक कर्म का आत्मा पर भिन्न-भिन्न प्रभाव होता है । आवरण ज्ञानावरण अन्तराय आत्मगुण प्रभाव अनन्त केवलज्ञान अज्ञानता अनन्त दर्शन दर्शनावरण अन्धापन, निद्रा... आदि अनन्त सुख वेदनीय सुख-दुःख क्षायिक चारित्र मोहनीय क्रोधादि, हास्यादि पुरुषवेदादि, मिथ्यात्व अक्ष्य स्थिति आयुष्य चारगति में भ्रमण अमूर्तता शरीर, यश-अपयशादि तीर्थंकरत्वादि अगुरुलघुता गोत्र उच्च-नीचता अनन्तवीर्य कृपणता, दुर्बलता वगैरह कर्मबन्ध : ज्ञानावरणीयादि कर्म पुद्गलों से आत्मा का बन्धना अर्थात् परतन्त्रता प्राप्त करना उसे 'बन्ध' कहते हैं। कर्मबन्ध पुदगल-परिणाम है। आत्मा का एक-एक प्रदेश अनन्तअनन्त पुद्गलों से बन्धा हुआ है। अर्थात् आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल अन्योन्य ऐसे मिल गये हैं कि दोनों का एकत्व हो गया है । जिस प्रकार से क्षीर और नीर का एकत्व हो जाता है। यह कर्मबन्ध' चार प्रकार से होता है : (१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभागबन्ध, (४) प्रदेशबन्ध। (१) कर्मपुद्गलों को ग्रहण करना, कर्म और आत्मा की एकता 'प्रकृति बन्ध' कहलाता है । 'पुद्गलादानं प्रकृतिबन्धः कर्मात्मनोरैक्यलक्षणः ।' (तत्त्वार्थटीकायाम्) (२) कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों में अवस्थान वह स्थिति । अर्थात् कर्मों का आत्मा में अवस्थानकाल का निर्णय होना वह 'स्थितिबन्ध' कहलाता है । कर्म१. 'बध्यते वा येनात्मा-अस्वातन्त्र्यमापाद्यते ज्ञानावरणादिना स बन्धः पुद्गल-परिणामः ।' -तत्त्वार्थ-टीकायां, श्री सिद्धसेनगणि २. 'प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ।' -तत्त्वार्थ, अ०८, सूत्र ४ ३. इति कर्मणः प्रकृतयो मूलाश्च तथोत्तराश्च निर्दिष्टाः ।। तासां यः स्थितिकालनिबन्धः स्थितिबन्ध उक्तः सः॥ -तत्त्वार्थ-टीकायाम्

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