Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 593
________________ ५६८ (४) सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्त : जीव की कम से कम अवगाहना भी असंख्य प्रदेशात्मक है । फिर भी कल्पना करें कि जीव की किसी एक आकाशप्रदेश में मृत्यु हुई है। इसके बाद इसके पास के आकाशप्रदेश में मृत्यु होती है। फिर इसके पास के तीसरे आकाशप्रदेश में मृत्यु होती है । इस तरह क्रमशः एक के बाद एक आकाशप्रदेश को मृत्यु से स्पर्श करता है और इस तरह समस्त लोकाकाश को मृत्यु द्वारा स्पर्श किया जाय, तब सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल - परावर्त काल कहा जाता है | ज्ञानसार परन्तु मान लो कि जीव की पहले आकाश प्रदेश में मरने के बाद तीसरे या चौथे आकाश प्रदेश में मृत्यु होती है तो उसकी गणना नहीं होगी । अगर पहले के बाद दूसरे आकाशप्रदेश में मृत्यु हो तब ही गणना हो सकती है । (५) बादर काल पुद्गलपरावर्त : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय (परम सूक्ष्म काल विभाग) हैं, उन समयों को एक जीव स्वयं की मृत्यु द्वारा क्रम से या उत्क्रम से स्पर्श करे तब बादर काल पुद्गलपरावर्त कहा जाता है । (६) सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्त : I उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समयों को एक जीव अपनी मृत्यु द्वारा क्रम से ही स्पर्श करे उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्त कहते हैं । जैसे कि अवसर्पिणी के प्रथम समय में किसी जीव की मृत्यु हुई, उसके बाद अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी बीत गई और वापिस अवसर्पिणी के दूसरे समय में मृत्यु प्राप्त की हो तो वह दूसरे समय का मृत्यु द्वारा स्पर्श गिना जाएगा । (७) बादर भाव पुद्गलपरावर्त : असंख्य लोकाकाश प्रदेशों के जितने अनुभाग बन्ध के अध्यवसाय स्थान हैं, उन अध्यवसायस्थानों को एक जीव मृत्यु द्वारा क्रम से या उत्क्रम से स्पर्श करने में जितना समय लगाता है उस काल को बादर भाव पुद्गलपरावर्त कहते हैं । (८) सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्त : क्रमश:' सब अनुभागबन्ध के अध्यवसाय स्थानों को जितने समय में मृत्यु द्वारा १. अनुभागबन्ध स्थान का वर्णन 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रन्थ में इस प्रकार है : तिष्ठति अस्मिन् जीव इति स्थानं; एकेन काषायिकेणध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां

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