Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 586
________________ परिशिष्ट : उपशम श्रेणी ५६१ अनन्तानुबन्धी कषाय के एक आवलिका प्रमाण निषेकों को छोड़कर ऊपर के निषेकों का अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण के दलिकों को वहाँ से उठा उठाकर बध्यमान अन्य प्रकृतियों में डालता है और नीचे की स्थिति जो एक आवलिका प्रमाण होती है उसके दलिक को भोगी जा रही अन्य प्रकृति में 'स्तिबुक संक्रम' द्वारा डालकर भोगकर क्षय करता है। अन्तरकरण के दूसरे समय में अन्तरकरण की ऊपर की स्थितिवाले दलिकों का उपशम करते हैं । पहले समय में कुछ दलिकों का उपशम करते हैं, दूसरे समय में असंख्यात गुना, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुना । इस प्रकार प्रति समय असंख्यातगुना-असंख्यातगुना दलिकों का उपशम करते हैं । अन्तर्मुहूर्त पूर्ण होते ही सम्पूर्ण अनन्तानुबन्धी कषायों का उपशम होता है । उपशम की व्याख्या : धूल के ऊपर पानी डालकर घन के द्वारा कूटने से जैसे धूल जम जाती है इसी तरह कर्मों पर विशुद्धिरूप जल छींटकर अनिवृत्तिकरणरूपी घन द्वारा कूटने से जम जाती है ! यही उपशम कहलाता है । उपशम होने के बाद उदय, उदीरणा, निधत्ति, निकाचना आदि करण नहीं लग सकते हैं अर्थात् उपशम हुए कर्मों का उदय... उदीरणा आदि नहीं होते हैं। अन्य मत : कुछ आचार्य अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशमन नहीं मानते हैं, परन्तु विसंयोजना या क्षपण ही मानते हैं । दर्शनत्रिक का उपशमन : ___ क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि आत्मा (संयम में रहते हुए) एक अन्तर्मुहूर्त काल में दर्शनत्रिक, (समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय) का उपशमन करते हैं । उपशमन करते हुए-पूर्वोक्त तीन करण करते हुए बढ़ती विशुद्धिवाला अनिवृत्तिकरण काल के असंख्य भाग के बाद अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण में सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है और मिथ्यात्व-मिश्र की आवलिका प्रमाण स्थिति करता है । इसके बाद तीनों प्रकृति के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकरण के दलिक को वहाँ से उठा उठाकर सम्यक्त्व की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति में डालता है। मिथ्यात्व और मिश्र का एक आवलिका प्रमाण जो प्रथम स्थितिगत दलिक है उसे स्तिबुक संक्रम द्वारा

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