Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 588
________________ परिशिष्ट : उपशम श्रेणी ५६३ (१) अश्वकरण - करणकाल (२) किट्टिकरण - काल (३) किट्टिवेदन - काल (१) प्रथम विभाग में संज्वलन लोभ की दूसरी स्थिति से दलिकों को ग्रहण कर प्रथम स्थिति बनता है और वेदन करता है। अश्वकर्ण-करण-काल में रहा हुआ जीव प्रथम समय में ही अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन-इन तीनों लोभ का एक साथ उपशमन प्रारम्भ करता है । विशुद्धि में चढता हुआ जीव अपूर्व स्पर्धक करता है। इसके बाद संज्वलन माया का समयन्यून दो आवलिका काल में उपशमन करता है । इस तरह अश्वकर्ण करण समाप्त होता है। (२) किट्टिकरण - काल में पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकों में से द्वितीय स्थिति में रहे हुए दलिकों को लेकर प्रति समय अनंत किट्टियाँ करता है। किट्टीकरण काल के चरम-समय में एक साथ अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशमन करता है । यह उपशमन होते ही संज्वलन लोभ के बन्ध का विच्छेद होता है और बादर संज्वलन लोभ के उदय-उदीरणा का विच्छेद होता है। इसके उपरान्त जीव सूक्ष्म सम्परायवाला बनता है ।। - (३) किट्टिवेदन-काल दसवें गुणस्थानक का काल है। (अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल है।) यहाँ दूसरी स्थिति से कुछ किट्टिया ग्रहण करके सूक्ष्म सम्पराय के काल जितनी प्रथम स्थिति बनाता है और वेदन करता है । समयन्यून दो आवलिका में बन्धे हुए दलिक का उपशमन करता है । सूक्ष्म सम्पराय के अन्तिम समय में सम्पूर्ण संज्वलन लोभ उपशान्त होता है । आत्मा उपशान्तमोही बनती है । उपशान्तमोह-गुणस्थानक का जघन्यकाल एक समय का है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त का है, इसके बाद वे अवश्य गिरते हैं । पतन: उपशान्तमोही आत्मा का पतन दो तरह से होता है । (१) आयुष्य पूर्ण होने से मृत्यु होती है और अनुत्तर देवलोक में अवश्य जाते हैं । देवलोक में उन्हें प्रथम समय में ही चौथा गुणस्थानक प्राप्त होता है। (२) उपशान्तमोह-गुणस्थानक का काल पूर्ण होने से जो जीव गिरे-वह नीचे किसी भी गुणस्थानक में पहुँच जाता है। दूसरे सास्वादन गुणस्थानक में होकर पहले

Loading...

Page Navigation
1 ... 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612