Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 582
________________ परिशिष्ट : बीस स्थानक तप ५५७ (४) गुरु : यथावस्थित शास्त्रार्थ कहनेवाले । धर्म-उपदेश आदि देनेवाले । (५) स्थविर : वयस्थविर (६० वर्ष से ज्यादा), श्रुत स्थविर (समवायांग तक के ज्ञाता), पर्याय स्थविर (२० वर्ष का दीक्षित) (६) बहुश्रुत : जो महान ज्ञानी हो । (७) तपस्वी : अनेक प्रकार के तप करनेवाले तपस्वी मुनि । (८) निरंतर ज्ञानोपयोग : हर समय ज्ञान का उपयोग । (९) दर्शन : सम्यग् दर्शन । - (१०) विनय : ज्ञान आदि का विनय । (११) आवश्यक : प्रतिक्रमणादि दैनिक धर्मक्रिया । (१२-१३) शील व्रत : शील यानी उत्तर गुण, व्रत यानी मूलगुण । (१४) क्षण-लव-समाधि : क्षण, लव आदि काल के नाम हैं। अमुक समय निरन्तर संवेगभावित होकर ध्यान करना ।। (१५) त्याग समाधि : त्याग दो प्रकार के हैं; द्रव्य त्याग और भाव त्याग। अयोग्य आहार, उपधि आदि का त्याग और सुयोग्य आहार-उपधि आदि साधुजनों को वितरण । यह द्रव्य त्याग है । क्रोध आदि अशुभ भावों का त्याग और ज्ञान आदि शुभ भावों का साधुजनों को वितरण-यह भावत्याग है । इन दोनों तरह के त्याग में शक्ति अनुसार निरन्तर प्रवृत्ति करनी चाहिए । (१६) तप समाधि : बाह्य-आभ्यन्तर बारह प्रकार के तप में शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। (१७) दसविध वैयावच्च : आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्षक, कुल, गुण, संघ और साधर्मिक आदि की १३ प्रकार से वैयावच्च करनी चाहिए। (१) भोजन, (२) पानी, (३) आसन, (४) उपकरण-पडिलेहण, (५) पाद-प्रमार्जन, (६) वस्त्र-प्रदान, (७) औषध प्रदान, (८) मार्ग में सहायता, (९) दुष्टों से रक्षण, (१०) दण्ड (डंडा) ग्रहण, (११) मात्रक-अर्पण, (१२) संज्ञामात्रक अर्पण और (१३) श्लेष्ममात्रक अर्पण । (१८) अपूर्व ज्ञानग्रहण : नया नया ज्ञान प्राप्त करना ।

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