Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 557
________________ ५३२ ज्ञानसार मन-वचन-काया के योगों से सहित हो वह सयोगी कहलाता है । केवलज्ञानी को गमनागमन, निमेष-उन्मेषादि काययोग होते हैं, देशनादि वचनयोग होता है । मनःपर्यायज्ञानी और अनुत्तर-देवलोकवासी देवों द्वारा मन से पूछे गये प्रश्नों का जवाब मन से देनेरुप मनोयोग होता है। इस सयोगी-केवली अवस्था का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोनपूर्वकोटि वर्ष होता है। जब एक अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहता है तब वे 'योगनिरोध' करते हैं। ____ योगनिरोध करने के बाद सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति नामका शुक्ल ध्यान ध्याते हुए शैलेशी में प्रवेश करते हैं। १४. अयोगी केवली-गुणस्थानक : शैलेशीकरण का काल (समय) पाँच हुस्व स्वर के उच्चारण काल जितना होता है और यही अयोगी-केवली गुणस्थानक का काल है। शैलेशीकरण के चरम समय के पश्चात् भगवन्त उर्ध्वगति प्राप्त करते हैं। अर्थात् ऋजुश्रेणि से एक समय में ही लोकान्त में चले जाते हैं । .. आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने का यह गुणस्थानकों का यथावस्थित विकासक्रम है। अनंत आत्माओं ने इस विकासक्रम से पूर्णता प्राप्त की है और अन्य जीव भी इसी विकासक्रम से पूर्णता प्राप्त करेंगे। ११. नयविचार *प्रमाण से परिच्छिन्न अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करनेवाले (दूसरे अंशों का प्रतिक्षेप किए बिना) अध्यवसाय विशेष को 'नय' कहा जाता है । प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है । 'प्रमाण' एक पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक सिद्ध करता है। जबकि 'नय' उसी पदार्थ के अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है और सिद्ध करता है। परन्तु एक धर्म का ग्रहण करते हुए अर्थात् प्रतिपादन करते हुए दूसरे धर्मों का खण्डन नहीं करता । ★ प्रमाणपरिच्छिास्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः। -जैन तर्कभाषायाम्

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