Book Title: Gyansara
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Chintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth

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Page 564
________________ ५३९ परिशिष्ट : ज्ञपरिज्ञा-प्रत्याख्यानपरिज्ञा ज्ञाननय-क्रियानय : 'ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः ।' मात्र ज्ञान की प्रधानता माननेवाला ज्ञाननय कहलाता है। "क्रियामात्र-प्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः ।' मात्र क्रिया की प्रधानता को स्वीकार करनेवाला क्रियानय कहलाता है । ऋजुसूत्रादि चार नय चारित्ररूप क्रिया की ही प्रधानता मानते हैं, क्योंकि क्रिया ही मोक्ष के प्रति अव्यवहित कारण है। 'शैलेशी' क्रिया के बाद तुरन्त ही आत्मा सिद्धिगति को प्राप्त करती है। नैगम, संग्रह और व्यवहार, ये तीनों नय यद्यपि ज्ञानादि तीनों को मोक्ष का कारण मानते हैं, परन्तु तीनों के समुदाय को नहीं, ज्ञानादि को भिन्न-भिन्न रूप से मोक्ष के कारण रूप स्वीकार करते हैं। ज्ञानादि तीनों से ही मोक्ष होता है, ऐसा नियम ये नय नहीं मानते। अगर ऐसा माने तो वे नय, नय ही न रहें । नयत्व का व्याघात हो जाय। यह ज्ञाननय-क्रियानय का संक्षिप्त स्वरूप है । १२. ज्ञपरिज्ञा-प्रत्याख्यानपरिज्ञा सम्यग् आचार की पूर्व भूमिका में सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता निश्चित रूप से मानी गई है । सम्यग्ज्ञान के बिना आचार में पवित्रता, विशुद्धि और मार्गानुसारिता नहीं आ सकती। ___ 'पापों को जानना और परिहरना, मनुष्य का-साधक मनुष्य का यह आदर्श, साधक को पापमुक्त बनाता है। इस आदर्श को श्री 'आचारांग-सूत्र' में 'ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा' की परिभाषा में प्रस्तुत किया गया है। आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में ही चार प्रकार की 'परिज्ञा' बताई गई है । (१) नाम परिज्ञा, (२) स्थापना परिज्ञा, (३) द्रव्य परिज्ञा', (४) भाव परिज्ञा । उसमें द्रव्य तथा भाव परिज्ञा के दो दो भेद बताए गये हैं : ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा । पृथ्वीकायादि षट्काय के आरम्भ-समारम्भ को कर्मबन्ध के हेतुरूप में जानना १. दव्वं जाणण पच्चक्खाणे दविए उवगरणे। भावपरिण्णा जाणणपच्चक्खाण च भावेण ॥३७॥-आचारांग प्र० अध्य० नियुक्तिगाथा २. पृथिवीविषयाः कर्मसमारम्भाः खननकृष्याद्यात्मका: कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहता भवन्तिा -आचारांग, प्र० अध्य० द्वि० उद्दे० सूत्र १८ शीलाङ्काचार्यटोकायाम्

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