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परिशिष्ट : चौदह गुणस्थानक
५३१ ९. अनिवृत्ति बादरसंपराय-गुणस्थानक :
एक समय में अर्थात् समान समय में इस गुणस्थानक पर आये हुए सभी जीवों के अध्यवसाय-स्थान समान होते हैं । अर्थात् आत्मा की यह एक ऐसी अनुपम गुणअवस्था है कि इस अवस्था में रहे हुए सभी जीवों के चित्र की एक-समान स्थिति होती है । अध्यवसायों की समानता होती है। परन्तु इस अवस्था का काल मात्र एक अन्तर्मुहूर्त होता है । शब्द व्युत्पत्ति इस प्रकार है : बादर का मतलब स्थूल, संपराय का अर्थ कषायोदय । स्थूल कषायोदय निवृत्त नहीं हुआ हो, ऐसी आत्मावस्था का नाम अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानक है।
इस गुणस्थान पर प्रथम समय से आरम्भ करके प्रति समय अनन्तगुण विशुद्ध अध्यवसायस्थान होते हैं, एक अन्तर्मुहूर्त में जितना समय हो उतने अध्यवसाय के स्थान इस गुणस्थानप्राप्त जीवों के होते हैं ।
इस गुणस्थान पर दो प्रकार के जीव होते हैं (१) क्षपक और (२) उपशमक। १०. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक :
सूक्ष्म लोभकषायोदय का यह गुणस्थानक है। अर्थात् यहाँ लोभ का उपशम हो जाता है अथवा क्षय कर दिया जाता है। ११. उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थानक :
संक्रमण-उद्वर्तना-अपवर्तना वगैरह करणों द्वारा कषायों को विपाकोदय-प्रदेशोदय दोनों के लिए अयोग्य बना दिया जाता है। अर्थात् कषायों का ऐसा उपशम कर दिया जाता है । कि यहाँ न तो उनका विपाकोदय आता है और न प्रदेशोदय ।
इस गुणस्थान पर जीव के राग और द्वेष ऐसे शान्त हो गए होते हैं कि वह वीतरागी कहलाता है। उपशान्तकषायी वीतराग होता है। १२. क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ-गुणस्थानक :
'क्षीणा:कषाया यस्य सः क्षीणकषायः' आत्मा में अनादिकाल से रहे हुए कषायों का यहाँ सर्वथा क्षय हो जाता है। १३. सयोगी केवली-गुणस्थानक :
'केवलं ज्ञानं दर्शनं च विद्यते यस्य सः केवली ।' जिसे केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन हों वह केवली होता है। ---
'सह योगेन वर्तन्ते ते सयोगा-मनोवाक्कायाः ते यस्य विद्यन्ते सः सयोगी।'