SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४३ द्रव्यपूजा और भावपूजा के भेद यहाँ भेदोपासना और अभेदोपासना की दृष्टि से बताये गये हैं। साथ हो अभेदोपासना रूपी भावपूजा के एकमात्र अधिकारी केवल निर्ग्रन्थ मुनिश्रेष्ठों को ही माना है । भावपूजा परमात्म-स्वरूप के साथ आत्मगुणों की एकता की अनुभूति करनेवाला मुनि कैसा परमानन्द अनुभव करता है, उसका वर्णन करने में शब्द और लेखनी दोनों असमर्थ हैं | वस्तुतः अभेदभाव के मिलन की मधुरता तो संवेदन का ही विषय है, ना कि भाषा का ! प्रस्तुत अष्टक में पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने भावपूजा के सम्बन्ध में उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया है। साथ ही भावपूजा में प्रयुक्त होने का उपदेश मुनिश्रेष्ठों को दिया है । अभेदभाव से परमात्मस्वरुप को अनन्य उपासना का मार्ग बताया है । साथ ही साथ, गृहस्थ वर्ग के लिये भावपूजा का प्रकार बताकर गृहस्थ मात्र को भी भेदोपासना की उच्च कक्षा बतायी है। ताकि वह परमात्मोपासना में प्रवृत्त हो, आत्महित साध सके । अरे, आत्महितार्थ आत्म-कल्याणार्थ ही जो जीवन व्यतीत कर रहा है- उसे यह विविध उपासना का मार्ग काफी पसन्द आएगा और इस दिशा में निरन्तर गतिशील होगा ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy