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________________ ४४२ ज्ञानसार -- भावपूजा । जिसके विवेचन : पूजा के दो प्रकार हैं द्रव्यपूजा और मन में जैसा आए, वैसे पूजा नहीं करनी है, अपितु योग्यतानुसार पूजा करनी है। आत्मा के विकास के आधार पर पूजन-अर्चन करना है । क्योंकि योग्यता न होने पर भी अगर पूजा की जाए, तो वह हानिकारक है । घर में रहे हुए और पापस्थानकों का सेवन करनेवाले गृहस्थों के लिए द्रव्य - पूजा ही योग्य है । अतः उन्हें सदैव द्रव्यपूजा करनी चाहिये । द्रव्यपूजा भेदोपासनारुप है I परमात्मा सदा-सर्वदा पूज्य हैं, आराध्य हैं । वे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, वीतरागता और अनंत वीर्य के एकमेव स्वामी हैं, साथ ही अजर, अमर एवं अक्षय गति को प्राप्त हैं । स्व आत्मा से भिन्न ऐसे परमात्मा का आलम्बन ग्रहण करना चाहिए | वे उपास्य हैं और गृहस्थ उपासक है, वे सेव्य हैं और गृहस्थ सेवक है । वे आराध्य हैं और गृहस्थ आराधक है । वे ध्येय हैं और गृहस्थ ध्याता है । 1 I गृहस्थ उत्तम कोटि के द्रव्यो से परमात्मा की प्रतिमा का भक्ति-भाव से पूजन करे । इस कार्य के लिए यदि उसे जयणायुक्त आरम्भ - समारम्भ करने पड़े, तो भी अवश्य करे ! परमात्मा के गुणों की प्राप्ति हेतु उनकी अनन्य भक्ति और उत्कट उपासना करें । प्रश्न : तब क्या गृहस्थ के लिये भावपूजा निषिद्ध है ? उत्तर : नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है । वह चाहे तो भावनोपनित मानस, नामक पूजा कर सकता है। अर्थात् परमात्मा का गुणानुवाद गुण-स्मरण और परमतत्त्व का सम्मान, गृहस्थ कर सकता है । यह एक प्रकार की भावपूजा ही है, लेकिन ‘सविकल्प' भावपूजा । वह गीत, संगीत और नृत्य के द्वारा भक्ति में लीन हो सकता है । अलबत्त, अभेद उपासना रूप भावपूजा तो साधु ही कर सकता है । आत्मा की उच्च विकास - भूमिका पर स्थित निर्ग्रन्थ परमात्मा के साथ अभेदभाव से मिल सकता है । परमात्मा के संग स्व- आत्मा का तादात्म्य, तन्मयता प्राप्त करे, यही है वास्तविक भावपूजा !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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