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________________ ४४१ भावपूजा वह है आत्मा । अनंत, असीम और अथाह । एक मात्र परम ब्रह्म । शेष सब मिथ्या है । परम सत्य का विश्व ही मोक्ष है । पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी मोक्ष हथेली में बताते हैं । भाव पूजा में खो जाओ... मोक्ष तुम्हारे बस में है। द्रव्य पूजा के अनन्य प्रतीकों के माध्यम से मोक्षगति तक पहुँचाने के साधनस्वरुप यहाँ भाव पूजा बतायी है। इसी तात्त्विक पूजा हेतु शास्त्राध्ययन और शास्त्र परिशीलन अत्यावश्यक है। शास्त्र-ग्रन्थों में उल्लेखित क्रमिक आत्मविकास के साथ कदम मिलाकर चलना जरूरी है । ___ओह ! आतमदेव के भावपूजन की कैसी अनोखी दुनिया है ! स्थूल दुनिया से एकदम निराली । वहाँ न तो संसार के स्वार्थजन्य प्रलाप हैं और ना ही कषायजन्य कोलाहल । न राग-द्वेष के दवानल हैं, ना ही अज्ञान और मोह के आंधी-तुफान । न वहाँ स्थूल व्यवहार की गुत्थियाँ हैं और ना ही चंचलताअस्थिरता के संकल्प-विकल्प । मोक्षगति की चाहना रखनेवाला और साधना-पथ पर गतिशील जीव जब प्रस्तुत भावपूजा में प्रवृत्त होता है, तब उसे अपनी चाह पूर्ण होती प्रतीत होती है । वह अनायास हथेली में मोक्ष के दर्शन करता है। ___ सारा दारमदार भावपूजा पर निर्भर है । तल्लीनता-तन्मयता के लिये लक्ष्य की शुद्धि आवश्यक है। यदि आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था के लक्ष्य को लेकर भावपूजा में प्रवृत्ति हो, तो तन्मयता का आविर्भाव हुए बिना नहीं रहता। अतः साधक आत्मा का यही एकमेव लक्ष्य हो और प्रवृत्ति भी । तभी साधना के स्वर्गीय आनन्द का अनुभव सम्भव है, साथ ही प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सकते हैं। द्रव्यपूजोचिता भेदोपासना गृहमेधिनाम् । भावपूजा तु साधूनां भेदोपासनात्मिका ॥२९॥८॥ अर्थ : गृहस्थों के लिये भेदपूर्वक उपासना रुप द्रव्यपूजा योग्य मानी गयी है। अभेद उपासना स्वरुप भावपूजा साधु के लिये योग्य है। (अलबत्त, गृहस्थों के लिए 'भावनोपनीत मानस' नामक भावपूजा होती है )
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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