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ज्ञानसार
श्री उमास्वाती भगवन्त ने 'प्रशमरति' प्रकरण में धर्मध्यान की क्रमशः चार चिंतन धाराएँ बताई है :
आज्ञाविचयमपायविचयं च सद्ध्यानयोगमुपसृत्य ।
तस्माद्विपाकविचयमुपयाति संस्थानविचयं च ॥२४७॥ १. आज्ञाविचय :
'आप्तपुरुष' का वचन ही प्रवचन है । यह है आज्ञा । उस आज्ञा के अर्थ का निर्णय करना विचय है। २. अपायविचय :
मिथ्यात्वादि आश्रवों में, स्त्रीकथादि विकथाओं में, रस-ऋद्धि-शाता गारवों में, क्रोधादि कषायों में, परीषहादि नहीं सहने में आत्मा की दुर्दशा है, नुकसान है। उसका चिंतन करके वैसा ही दृढ़ निर्णय हृदय में स्थापित करना। ३. विपाकविचय :
अशुभ और शुभ कर्मों के विपाक (परिणाम) का चिंतन करके 'पापकर्म से दुःख तथा पुण्यकर्म से सुख' ऐसा निर्णय हृदयस्थ करना । ४. संस्थानविचय :
षड्द्रव्य, ऊर्ध्व-अधो-मध्यलोक के क्षेत्र, चौदह राजलोक की आकृति वगैरह का चिंतन करके, विश्व की व्यवस्था का निर्णय करना, उसे संस्थानविचय कहते हैं। धर्मध्यानी :
श्री आवश्यक सूत्र में धर्मध्यान करने की इच्छुक आत्मा की योग्यता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है :
'जिणसाहूगुणकित्तणपसंसणाविणयदाणसंपण्णो। सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयव्वो' ॥
१. आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञा, विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । २. आस्रवविकथागौरवपरीषहाद्येष्वपायस्तु। ३. अशुभशुभकर्मविपाकानु चिन्तनार्थो विपाकविचयः स्यात् । ४. द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु । २४८-२४९ प्रशमरति प्रकरणे ।