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परिशिष्ट : आयोजिका-करण समुद्घात योगनिरोध
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मोट करे ।
क्षय होता है, अगर ऐसा माना जाय, तो असंख्य भवों में तथा प्रकार के विचित्र अध्यवसाय द्वारा नरकादि गतियों में जो कर्म उपार्जित किए हैं, उन सब का मनुष्यादि एक भव में ही अनुभव (भोग) नहीं हो सकता। क्योंकि जिस-जिस गति योग्य कर्म बाँधे हों, उनका विपाकोदय उस गति में जाने पर ही होता है, तो फिर आत्मा का मोक्ष किस प्रकार हो ?
जब आयुष्य अन्तर्मुहूर्त बाकी हो, तब समुद्घात किया जाता है।
'पहले समय में अपने शरीर प्रमाण और उर्ध्व-अधोलोक प्रमाण अपने आत्मप्रदेशों का दण्ड करे।
दूसरे समय में आत्मप्रदेशों को पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण में कपाट रुप बनायें।
तीसरे समय में रवैया (मन्थान) रुप बनायें । चौथे समय में आन्तराओं को पूरित करके सम्पूर्ण १४ राजलोक व्यापी बन जाय। पाँचवें समय में आन्तराओं का संहरण कर ले । छठे समय में मन्थान का संहरण कर ले । सातवें समय में कपाट का संहरण कर ले ।
आठवें समय में दण्ड को भी समेटकर आत्मा शरीरस्थ बन जाय । ३. योगनिरोध :
समुद्घात से निवृत्त केवली भगवान् 'योगनिरोध' के मार्ग पर चलते हैं। योग (मन-वचन-काया) के निमित्त होनेवाले बन्ध का नाश करने हेतु योगनिरोध करने में आता है । यह क्रिया अन्तर्मुहूर्त काल में करने में आती है।
सबसे पहले बादर काययोग के बल से बादर वचनयोग को रोधे. फिर बादर काययोग के आलम्बन से बादर मनोयोग को रोघे । उसके बाद उच्छ्वास-निश्वास को रोधे, तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोधे । (कारण कि जहाँ तक बादर योग हो वहाँ तक सूक्ष्म योग रोधे नहीं जा सकते ।)
१. दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये।
मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥२७४|| -प्रशमरति प्रकरणे २. संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः पष्ठे ।
सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ - प्रशमरति प्रकरणे