________________
४९८
ज्ञानसार
विवेचन : यह 'ज्ञानसार' का दीपक दीपावली के पुनित पर्व में पूर्णरूपेण प्राप्त हुआ । गुर्जर धरा पर स्थित प्राचीन संस्कृति के अनन्य धाम 'सिद्धपुर' नगर में चातुर्मासार्थ रहे ग्रन्थकार के शुभ हाथों इसकी पूर्णता हुई ।
वास्तव में ज्ञानदीप का प्रकाश श्रेष्ठ है । सर्व प्रकाशों में प्रस्तुत प्रकाश सारभूत है । जो कोई सज्जन इस ग्रन्थ का अध्ययन, मनन एवं परिशीलन करेगा उसे नि:संदेह रहस्यभूत ज्ञान की प्राप्ति होगी । रहस्य से मन पवित्र होता है और आश्चर्य से चमत्कृत ! ऐसे जीवों के लिए ग्रन्थकार कहते हैं
:
“हे मानव ! तुम नित्य प्रति निश्चयनय के असंख्य दीपक प्रज्वलित करो और सदैव दीपावली महोत्सव मनाओ !"
ग्रन्थकार महोदय की यही मनीषा है कि, इसके पठन-पाठन एवं चिंतन से सांसारिक जीव हमेशा आत्मज्ञान के दीप प्रज्वलितकर अपूर्व आनन्द का अनुभव करें । साथ साथ इसके अध्ययन - परिशीलन से मन पवित्र बनेगा और अनुपम प्रसन्नता का अनुभव होगा, इसका विश्वास दिलाते हैं ।
निश्चयनय के माध्यम से आत्मज्ञान पाने के लिये प्रयत्नशील बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है ।
केषांचिद्विषयज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषावेगोदर्कतर्कमूच्छितमथान्येषां कुवैराग्यतः । लग्नालर्कमबोधकुपपतितं चास्ते परेषामपि, स्तोकानां तु विकारभाररहितं तज्ज्ञानसाराश्रितम् ॥
अर्थ : उफ् ! कइयों का मन विषयज्वर से पीडित है, तो कइयों का मन विष-वेग जिसका परिणाम है वैसे कुतर्क से मूच्छित हो गया है, अन्य का मन मिथ्या वैराग्य से हडकाया जैसा है, जबकि कुछ लोगों का मन अज्ञान के अन्धेरे कु में गिरे जैसा है । फिर कुछ थोडे लोगों का मन विकार के भार से रहित है, वह ज्ञानसार से आश्रित है ।
I
विवेचन : संसार में विभिन्न वृत्ति के जीव बसते हैं। उनका मन भिन्न भिन्न प्रकार की वासनाओं से लिप्त है ! यहाँ ऐसे जीवों का स्वरूप-दर्शन कराने