________________
५०८
ज्ञानसार
देखी हैं । उनमें से प्रथम भूमिका अध्यात्मयोग की है।
उपाध्यायजी ने 'अध्यात्मसार' ग्रन्थरत्न में 'अध्यात्म' की व्याख्या इस प्रकार की है :
'गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य' या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्मं जगुर्जिनाः ॥
जिन आत्माओं के ऊपर से मोह का अधिकार... वर्चस्व उठ गया है, वे आत्माएँ स्व-पर की आत्मा को अनुलक्षित करके जो विशुद्ध क्रिया करती हैं (मन, वचन, काया से) उसे श्री जिनेश्वरदेव ने 'अध्यात्म' कहा है।
जीवात्मा पर से मोह का वर्चस्व टूट जाने पर जीवात्मा का आंतरिक एवं बाह्य स्वरुप कैसा बन जाता है, उसका विशद वर्णन, भगवन्त हरिभद्राचार्य ने 'योगबिन्दु' ग्रन्थ में किया है।
. उस जीव का आचरण सर्वत्र औचित्य से उज्ज्वल होता है। स्व-पर के उचित कर्तव्यों को समझकर तदनुसार अपने कर्तव्य का पालन करनेवाला वह होता है। उसका एक-एक शब्द औचित्य की सुवास से मधमधायमान होता है ।
__ उसके जीवन में पाँच अणुव्रत या पाँच महाव्रत रम गये हुए होते हैं । व्रतों का प्रतिज्ञाबद्ध पालन करता हुआ, यह महामना योगी लोक प्रिय बनता है।
श्री वीतराग सर्वज्ञ भगवन्तो के द्वारा निर्देशित नवतत्त्वों की निरन्तर पर्यालोचना मैत्री-प्रमोद-करूणा-माध्यस्थ्यमूलक होती है, अर्थात् इसके चिंतन में जीवों के प्रति मैत्री की, प्रमोद की, कारूण्य की और माध्यस्थ्य की प्रधानता होती है। इस प्रकार औचित्य, व्रतपालन और मैत्र्यादि प्रधान नवतत्त्वों का चिंतन यह वास्तविक 'अध्यात्म' है ।
इस अध्यात्म से ज्ञानावरणीयादि क्लिष्ट पापों का नाश होता है । साधना में आंतरवीर्य उल्लसित होता है । चित्त की निर्मल समाधि प्राप्त होती है, सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, जो कि जात्यरत्न के प्रकाश जैसा अप्रतिहत होता है। अध्यात्म
१. अध्यात्मसारे - अध्यात्मस्वरुपाधिकारे। २. औचित्याद् वृत्तयुक्तस्य वचनात्तत्वचिंतनम्।
मैत्र्यादिसारमत्यन्तमध्यात्मं तद्विदो बिदुः ॥३५८|| योगबिन्दुः । ३. अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम्।
तथानुभवसंसिद्धममृतं ह्यद एव तु ॥३५९॥ योगबिन्दुः ।